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दामदि दिनु अतियद्वियमाखयं सुम सुम बजियम पोमण्दमविपोमाह रण। गयपा संण मसपास जियां चंद्रणमदिहयुचदवि सुविहिंसुविदिजहि सीयल वयण सहयेगरु सायल गाढं वंदेहं सर्व ससेदायविचियर वास वम्रजतिअपियरसि रिवाज्ञणामणिरदं विमलविमलेतुवतावसह चंदेल वं तमणं तमहं मणसमिर लूरिसीसण तमई धमो ददधम्मप्यासपर कम्म हगठिनिन्नासयर संतसंति जगसं तियर सोलह मं परमंतिळय रं कथं कुंथेसुदयावहरं वगंथियगंथपंथविदर पणमामि अरंसब्जियसमं अरमयलुम्मूलि अमोड्डम, मवियमल्लिय दामनियय मुणिसद्दयमणिरावयं निनमिनमिनाहंजग सामि गुरनर्मिव देन में पा संपासास किरण हियं सऋण विदुरसियधम्मसियं वंदेवय चढमा गमि यम सिरिवहमाण वीरचरिमं घत्रा जिहूलरहे नरिदं कुवलय चंद वंदिया सबल जिणेसरा तिहतं जबराएं समिनकसायं पुष्ययत जोईसर । महा पुराणेति सहिमहापरिस गुणालंकारा महाकश्शुष्कवंत विरश्या महा सदसरोणुमन्निए। महाकू। जयख लोयजाति कर्व दर्पणामधनी समो संघ परिनटसम्म||ळा ३६॥ गुरुधर्माज्ञवपावनामलिनंदित
अनिन्दित मोक्षगति को चाहनेवाले तथा कुमति को छोड़नेवाले सुमति को, केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को धारण करनेवाले पद्मप्रभ भगवान् को बन्धन से रहित सुपार्श्व को नमस्कार करो। चन्द्रमा की विशिष्ट कान्ति को नष्ट करनेवाले चन्द्रप्रभ की, यशः समूह के समान बुद्धिवाले सुविधि की अपने शीतल वचनों से संसार के रोगों को दूर करनेवाले शीतलनाथ की मैं बन्दना करता हूँ। कल्याण प्रवृत्ति के विधाता श्रेयांस को, त्रिभुवन के पिता इन्द्र के द्वारा पूज्य, पूजनीय श्रीवासुपूज्य को, तप के ताप के सहनकर्ता पवित्र विमलनाथ को मन को घुमानेवाले प्रचुर और भयंकर अज्ञान अन्धकार के नष्ट करनेवाले ऐश्वर्य सम्पन्न अनन्तनाथ को मैं नमस्कार करता हूँ। दस धर्मों के उपदेशक और स्व-पर को जाननेवाले धर्मनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ। स्वयं शान्त और विश्व में शान्ति के विधाता सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ को अत्यन्त सूक्ष्म जीवों के प्रति दया करनेवाले, तरह-तरह की (अन्त:- बाह्य) ग्रन्थियों से परिपूर्ण पन्थों को दूर करनेवाले कुन्थुनाथ को, शमभाव के धारक, अचल मोहवृक्ष को उखाड़नेवाले अरहनाथ को, मालती पुष्प की मालाओं से अंचित मल्लिनाथ को सुव्रती
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मुनिसुव्रत को, चक्रवर्तियों के द्वारा प्रणम्य विश्वस्वामी नमिनाथ को, गुणरूपी रथ की नेमि नेमिनाथ को, पाशों के लिए हाथ में तलवार लेनेवाले पार्श्वनाथ को तथा शत्रुओं के लिए भी धर्म की श्री दिखानेवाले, व्रतों से नियमों की उत्तरोत्तर वृद्धि करनेवाले, अन्तिम तीर्थकर वर्धमान को मैं प्रणाम करता हूँ।
घत्ता - जिस प्रकार पृथ्वीमण्डल के चन्द्र भरतराजा ने समस्त जिनेश्वरों की बन्दना की, उसी प्रकार शान्त कषाय जयकुमार राजा ने पुष्पदन्त योगीश्वरों (तीर्थकरों) की वन्दना की ॥ २० ॥
त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का जय-सुलोचना तीर्थवन्दन नाम का छत्तीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ।। ३६ ।।
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