Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 680
________________ जहिं सिरियाखगमउकालेपतहि वसुवालविणवालविपरम ब्रहंकरउमडरशविरमाश्यम् विकतरुञ्चयन धणणादिषुत्रालिंगणातुसुपिणुतादसलायणहारायवसावरालि यलायणहि युणलशिदेविदिमवाधरमि हॉरखगजेम्मतरुससरभिातर्दिनवसरेहरिसहाश्य उजमनखीजाश्मल गंमहिमोरिषमनियल गलगललविहारपवतियाठानियसोहानिय जिनकालसिरि तपखिविलापियसिछिल्ला दिनजाणमिसाविणि अश्मायाविणाकी तहोवाडुभकारिणि असिमाउनेकहता थवाणिरतरु कहडधारिणि बर्डदेविसलो याणवरिम पावसतिखारदरियापकहिछकगुणसहदमिल दिहनएबहिर्किकहा मि रमणीयएसिरितूडामणिहिनासबुकयउदोहिंविझणिदि सहाहाशहिंजसमणियामा घुणे घामहरिसुजपिय हगछमिगयणेअनुत्तहिं जिपुर्वस्वसंघसस्वसझदि खणालंकारेव कुरियर किनादावसतवरित जहातउयायिपहावटै तहकनिएणिपनियवेश्हघियपास्य। लायणजलव विपिविउल्ललियाक्षिणहे जणुजामहदिहिमुयश्वसहचविठकल। पस्यश्ते उरूपरियणनीसराश्वधवयसंसरंडयुसज्ञाघवाडलंधियजलहरासरवरमधियाना हरे सहासालधपतर तपश्यञ्चजवरचलकिसलमकलाजिणवरलवणतशाश्छाविसिवि|र समय आने पर श्रीपाल भी वहाँ पहुँचा। वसुपाल, गुणपाल तथा परम अरहन्त भी मेरी रति का विराम करें। उसमें मैं श्रद्धा नहीं करती। लो मैंने सब देख लिया, अब क्या छिपाऊँ।" तब रमणीजनों के लिए चूड़ामणि इस प्रकार अपना कथान्तर सुनकर प्रेम के वश से अपनी आँखों को घुमानेवाली उस सुलोचना को सन्तोष के समान उन दोनों ने उसे शल्यरहित बना दिया। जयकुमार ने अपने छोटे भाई के लिए राज्य सौंप दिया देने के लिए जयकुमार ने उसे आलिंगन दिया। उसने कहा कि हे देवी, मैं तुम्हें हृदय में धारण करता हूँ। और मेघ के स्वर में घोषणा की कि आज मैं आकाश में वहाँ-वहाँ जाता हूँ जहाँ जिन, ब्रह्मा और स्वयम्भू मैं विद्याधर के जन्मान्तर की याद करता हूँ। उसी अवसर पर हर्ष से उछलती हुई पूर्व जन्म की विद्याएँ आयीं, स्वयं निवास करते हैं। उसने रत्नालंकारों से विच्छरित विद्याधर का स्वरूप बनाया। जो प्रभावती का रूप गान्धारी, गौरी और प्रज्ञप्ति जो आकाशतल में विहार करने की प्रवृत्तिवाली थीं। अपनी शोभा से कमल श्री था, अपने पति के लिए उस रूप को धारण कर सुलोचना आकाशपथ में प्रिय के पास स्थित हो गयो । दोनों को जीतनेवाली प्रियंगुश्री उसे देखकर कहती है शीघ्र आकाशपथ में उछल गये। जन उन्हें देखता है और अपनी ऊपर की दृष्टि छोड़ देता है। वियोग को घत्ता-मैं समझती हूँ यह भामिनी अत्यन्त मायाविनी और प्रिय की चापलूसी करनेवाली है। यह दुष्ट सहन नहीं करता हुआ रोता है। अन्तःपुर और परिजन निःश्वास लेता है, बान्धवजन याद करता हुआ शुष्क दुराचारिणी झूठ-मूठ कथान्तर और भवजन्म-परम्परा कहती है ॥१३॥ होता है। १४ घत्ता-जिसने मेघों का अतिक्रमण किया है ऐसे सुमेरु पर्वत और भद्रशाल बन के भीतर जिन मन्दिरों "हे देवी सुलोचने ! तुम अवतरित हुई और मैं पापी सौत-खार से भर गयी। तुमने जो कथांग कहा, में चंचल कोयलों के समान हाथवाले वधू-वर प्रवेश करते हैं ॥१४॥ 661 www.jainelibrary.org Jain Education inte n s For Private Personal use only

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