Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 674
________________ SHAATMAUSHAYA सुघावती पुंडर दूधरलंजिभवसंघरविया तणिमणेविनखसंदलिउह किणीनगरीनुषा शिखरधलारमनमिलिजापश्ततिहान्निमहासईहे सपा वतालेश्शाया। निवाखसुवईहे प्रियच्यणहिंविदजंपियठा जिहश्मर मुहहकपिय साखंडपणावसामिला जाणविवर णितण्यतापणविद्या विज्ञाहरिविक्रमदारिदरिहथियसा विपुंडरिकापारिहेपहरणसालदेहल्लियलयही उणाप DN-चकूनराहिवदो नवनिहिवजायचयकिंवमश अम्हारिसुचकशाधना तलिमयलेरवणय ससहरमामय पडिवजेवियकारण जसवश्महिराया। सहसपसाएं कितनहाईसमासणापायधिसणवेचिमछ याधसाला चकरनुउपना रिलामायाहपणहमशवहरिल घटिययालगताहिविमलाही डिईिकाणगिरियादिले गलधियणहालयलयरहदि हईकवकिलाहरदं मख्यमसरियअमेरिसबलोग विषाणासाहराशेचलकरयानचलिमहलससलाआरुहडदा, ३२८ उसकी गृहदासी के रूप में घर में स्थापना की गयी है।" यह सुनकर राजा चला, अश्वों के खुरों की धूल पत्ता-चन्द्रमा के समान रंगवाले (सफेद) और सुन्दर तलभाग में एकासन स्वीकार कर, यशस्वती के आकाश से जा मिली। शीघ्र बह पतिभक्ता महासती सुखावती के निवास पर पहुँचा। प्रिय शब्दों में वह इस साथ राजा ने प्रसादपूर्वक सुख-दुख की बातें कीं॥५॥ प्रकार बोला कि उससे उस मुग्धा का मन काँप उठा। इष्या करनेवाली वह पति के द्वारा शान्त कर दी गयी, उसने जाकर वणिक् कन्या को नमस्कार किया। वह विद्याधरी (सुखावती) इन्द्र के पराक्रम का हरण पहले अशनिवेग मुझसे ईष्या रखता था। मायावी अश्व के द्वारा मेरा अपहरण किया गया। मुझे विजयार्ध करनेवाली पुण्डरीकिणी नगरी में जाकर स्थित हो गयो ( रहने लगी) । जिसका तप सुफलित है ऐसे उस राजा पर्वत पर छोड़ दिया गया। मैं उस गम्भीर जंगल में घूमा। फिर मैंने अपनी गति से आकाशतल और मेघों को आयुधशाला में चक्ररल की प्राप्ति हुई। वह चक्रवर्ती नौ निधियों का स्वामी हो गया। हमारे जैसा कुकवि का अतिक्रमण करनेवाले विद्याधरों के छल-कपट देखे। मैंने ईर्ष्याजनक कितने ही साहसी कार्य किये। उन्हें उसका वर्णन कैसे कर सकता है। देखकर, जो अपने चंचल हाथों में चंचल हल और मूसल घुमा रहे हैं, ऐसे वे गर्वीले दुष्टजन Jain Education International For Private & Personal use only www.jain 655/org

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