Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 677
________________ नपसरासयाणुहाशक्विादिविनन करकापुजनारिपश्मायविणु शुष्मायनयरिक धरिताजियाच्याँ अमणियसंबंधपचिसोसंध्याकरसंकरनंजपिनातहपितारिएखम हिरडारिए मश्वालएडकिनकिटानामणविलासिणिरासिरि अकमलकरिणसयमवास रिगतिपलाश्यवणिवत्रणा पहिजतिसणियवाहवरमा मुहांडनाश्मसयदादिस किंवत्र। हिनदिपुल्यवसाताकदिनताएनषिणाहलङ्गादेवीपयफसनहमुडावारहवरिसियरस्कार किन निणदंसयाजगडरिमजिहसुवागअमिणसिचिदालतणे गुमश्चरामंचित जसवज्ञा पगलियाजलाजकानासाहलंयपियामासासाक्ष्मवनवशणिखगवरवियरुहार जायजवाजवण्महदसपाहतूद असरदापहवाहम्शणही ताजणिणियजणियतिळया सध्यपधारहरिपंच सरूवलातिवणुटिकवियसर मिणजम्मणकामडनाळधर नियमह हितियसहिजिषुधवलाजाणमिसिसिरिकपदधवलायता सईन्द्रवपुरंदासणुम। दिरू कायऊंडणायुरु जहिसाजियासह तस्वउनकहइकोविजश्णायकारवा वणवितरकप्याहिवेदिदिवदिशमसासवसिवाहासयावालुनाइकिजिणवरह याण विद्यपिदमजसोवश्हानवमासयवरूमहासश्संस्यपद्यसुहावश्हाँससहायकों पूर्व दिशा का अनुकरण कौन दिशा कर सकती है? क्या किसी दूसरी दिशा में सूर्य का उदय हो सकता है! विद्याधरी नष्ट हो गयी। और भी उस युवती का पैर भारी हो गया। उसके उदर से युवराज का जन्म होगा, हे आदरणीय, तुम्हारे बिना कौन स्त्री जिनवर को अपने उदर में धारण कर सकती है ! इसलिए एक दूसरी ने उसे युवराज-पट्ट बाँध दिया। तब माता ने तीर्थकर को जन्म दिया। भय से कामदेव घत्ता-क्रोध से अन्धी, मैंने सम्बन्ध को नहीं जानते हुए जो कठोर शब्दों का प्रयोग किया उन्हें हे डर गया। उसने अपना धनुष उतार लिया और तीर छिपा लिये। जिनवर के जन्म के समय कामदेव के लिए देवताओं की प्रिय आदरणीये, आप क्षमा कर दें। मुझ मूर्खा ने बहुत बड़ा पाप किया॥९॥ रक्षा नहीं रह जाती। देवों के द्वारा जिनेन्द्र श्रेष्ठ सुमेरु पर्वत पर ले जाये गये, मैं जानता हूँ कि वह शिवलक्ष्मी १० रूपी कन्या के भर्ता हैं। विलासिनी नाम की एक रंगश्री (नर्तकी) थी जो कमल से उत्पन्न न होते हुए भी स्वयं लक्ष्मी थी। सेठ पत्ता-देवेन्द्र स्वयं स्नान कराता है, मन्दराचल आसन है, समुद्र शरीर के लिए कुण्ड है (जलपात्र है), ने उसे जाते हुए देखा। जिसे कामवासना बढ़ रही है ऐसे उस सेठ ने रास्ते में जाते हुए उससे पूछा-'अपने स्नानगृह वही है जहाँ जिन स्नान करते हैं ऐसा कोई चतुर मनुष्य गणधर आदि कहते हैं ॥१०॥ मुखचन्द्र से दिशाओं को आलोकित करनेवाली तुम रोमांचित होकर नाचती हुई क्यों जा रही हो?' उसने सेठ से कहा-देवी के चरण स्पर्श से मेरी बारह वर्ष की खाँसी मिट गयी है, उसी प्रकार, जिस प्रकार जिनदेव के दर्शन से लोगों के पाप मिट जाते हैं। मेरा पृष्ठभाग मानो अमृत से सिंचित हो। इसी से मेरा शरीर रोमांचित शाश्वत् सुख की इच्छा रखनेवाले भवनवासी, व्यन्तर और कल्पवासी देवों ने जिनपति का नाम गुणपाल है। यशस्वती के पैरों से प्रगलित जल से ज्वर और ग्रहभूत-पिशाचों का नाश हो जाता है। वह धूमवेगा वैरिन रखा और लाकर यशस्वती के लिए सौंप दिया। महासती सुखावती के भी नौ माह में एक और पुत्र हुआ। For Private & Personal use only www.jainelibrary.org ११ Jain Education internatione

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