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अणु नष्णमुचियप्पविही सरु जिहदेवियन हरि मिही सागमणिय वास होता पालो विणि पहि रायराम चूडामणि ॥ धत्ता इसे विसतु लिवि वरपदे सलिलम इह हिपडियन तर्जिन पुरवासि लामो लहो नृपस्विडिनन । तावळयरिरु संयन्त्रन नदिग्रएंडिउधित्र सह जनुवरुष्णासाला लिहि मणि वाडं तुमहरम वखानिदि ॐ कुमखसमामेल वर नंचड पहर हि
सलिनड (नवदलु हरु खोष्टसियन राइ लरुतादिसितरुणिय्डसियन साघुर्विकि रणावलि जडिय3 उमत्रेणच होगइपडियन मंदत्माऊनी लपसच्यि तमेतदिं विवरंतरस्यणि समागमोनकच्छ राय पसरविल नालसिलाय लेख लेखिसन्तन । सिरिअर हैन सिद्धआइरि यह उशायसाइड का किरियड पंच मंचिय समाज दि डिहि सुवर पडुचराई परमेहि हिं ॥ घुला असि श्रानुसार पंच करणं सायं न दो साया दई चोरारिमा रिसिद्धि पाणियई उवसमैति मिगनंद ॥ १२३॥ तापाइकालेरविन महिना दियारविणिग्नड ना रुत्तरेपि ते सुरेंते तारिपरिडिय तहिजे समते राट्रणयपाणंदणेरी दिही पडिमजिर्लिंद होकरी नितियार. निग्नंथमणोहर पहरणे वजियन लविय करु लखण लरकवल खिय देहा हउसारणमित्रा राजेजेही हनुसारणमिक्कहिणिवदन। कढिएवं सुलभा रममग्न हो सामाईसरसाल ३२४
कि किस प्रकार उस निधीश्वर का उद्धार हुआ। वीणा के समान आलाप करनेवाली वह देवी अपने घर चली गयी। यहाँ वह राजश्रेष्ठ राजा
घत्ता - उस ऊँचे-नीचे विवर में प्रवेश करते हुए एक महासरोवर के जल में गिर पड़ा। उसमें जाते हुए और तिरते हुए शिला से बने खम्भे पर चढ़ गया ।। ११ ।।
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इतने में सूर्य अस्ताचल पर पहुँच गया। मानो दिनराज द्वारा फेंकी गयी गेंद पश्चिम दिशा की परिधि में जाती हुई शोभित हो रही हो या महासमुद्र की खदान में पड़े हुए मणि की तरह वह कुंकुम और फूलों के समूह की तरह रक्त है। मानौ रक्तरूपी रस से लाल चतुष्प्रहर है। मानो आकाशरूपी वृक्ष से नवदल गिर गया। है। मानो दिशारूपी युवती ने लाल फल को खा लिया है। किरणावली से विजड़ित सूर्य का वह बिम्ब मानो उग्रता के कारण अधोगति में पड़ गया है। स्थूल तमाल वृक्षों से नीले, जिसमें रत्नों का समागम है ऐसे विवर के भीतर कि जिसमें अन्धकार फैल रहा है। श्रीपाल नील शिलातल के खम्भे पर बैठा हुआ, मगर समूह
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के भय के प्रतार से उदास होकर श्री अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और आचरणनिष्ठ साधुओं, पाँचों सम्यग्दृष्टि को संचित करनेवाले परमेष्ठियों के प्रभु चरणों का ध्यान करता है।
घत्ता - पाँच अक्षरोंवाले णमोकार मन्त्र का आनन्द से ध्यान करनेवाले के सम्मुख चोर, शत्रु, महामारी, आग, पानी और पशु, जलचर समूह सानन्द शान्त हो जाते हैं ॥ १२ ॥
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इतने में सवेरे सूर्योदय हुआ, मानो धरती का उदर विदारित करके निकला हो। उस राजा ने तुरन्त पानी में तैरकर घूमते हुए, किनारे पर स्थित नेत्रों को आनन्द देनेवाली, जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा देखी। निर्विकारनिर्ग्रन्थ- सुन्दर, प्रहरणों से रहित, हाथों का सहारा लिये हुए जो लाखों लक्षणों से उपलक्षित थी। मैं (कवि ) कहता हूँ कि वह अहिंसा के समान थी। मैं कहता हूँ कि वह अपवर्ग की पगडण्डी थी, और नरकमार्ग के ● लिए कठिन भुजारूपी अर्गला थी। स्वामी भरत । उसे सर के जल से अभिसिंचित किया,
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