Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 668
________________ श्रीपालुनिजदस एउजियससहलाकिसासश्नवसमाजलहरु पाविकोविणणं आगमन पिछठणरु सादामणिपण्डासणितारादलिणणसएम छिमवियष्यविरापजन पश्साहाटारुयनिरुताश्यपलए। चतहातर्हिजपराध्या विहिणासाखाजगताझ्यसहियखिए। हरिसंगमविउतनमाणुसजनमानचिठायपविद्धनपनि लयातायही जगतायहायवकविहायहातिहिविहिवितण झिएपचि स्वसंसरणावडयंकेविराना सिविालेगुरुगुणवाखूतहि मनडचडाविद्यादर्ने वदिडपरमसरुपममणि परमाणपरम जपविणासविधलिनसहमतिविपतोजोश सख्मतमहाठकपविकसि चंडवश्वस्यहारपसासिनामलगाइजिणुगयजमकिसायरि एमहो। डममनोमयमामसिइईकाणाजकसरतरिक्डविशमविलासर्णसरसरिजाणेविपदण्व प्पणदह ताशाइनिविरुणहें आश्सदावश्कहिलमारे पदाखिनहनवलसारे विवाहा रहपयासिमवेसणई मामाचियअणयहपिसुण्डागहमशहशवहरतहोलितणावल्लरिछवदे। पिंडतहो यहमचलचितामणि कामवाणकपडमगेमिणि यहमसजावणडेसहि विकासमा |३२५ क्या यह नभ-सन्ध्या मेघ दिखाई देता है ? या कोई पक्षी है ? नहीं-नहीं यह निश्चय ही मनुष्य है। क्या यह बिजली है? नहीं नहीं यह रत्नदण्ड है। क्या तारावली है ? नहीं-नहीं ये अलंकारों के मणि हैं। इस प्रकार विचार कर राजा वसुपाल ने कहा कि यह निश्चय से हमारा भाई आ रहा है। इस प्रकार उनके बात करते श्रीपाल वहाँ आ पहुँचा मानो विधाता ने उनके लिए सुखपुंज दिया हो। सुधीजन और परिजन हर्ष से रोमांचित हो उठे। वहाँ एक भी मानव ऐसा न था जो नाचा न हो। उसे विश्व के पिता और प्रत्यक्ष विधाता-पिता के शरण में ले जाया गया। उन्होंने स्वामी को प्रणाम किया। उन दोनों ने उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान के दर्शन कर संसार में परिभ्रमण करने की अवस्था की निन्दा की। घत्ता-श्रीपाल ने अपने दोनों हाथ मुकुट पर चढ़ाते हुए महान गुणों के पालन परममुनी परमात्मा परमेश्वर की परमार्थ भाव से वन्दना की॥१५॥ जिन्होंने कामदेव को नष्ट करके डाल दिया है, ऐसे योगीश्वर से माता ने पूछा कि मेरे पुत्र को किसने अलंकृत किया ? यह चन्द्रमा के समान महान् आभा से आलोकित क्यों है ? जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं कि हे कृशोदरी, पूर्वजन्म में इसके पैदा होते ही इसकी माँ मर गयी। जो जंगल में यक्ष देवी हुई। जो मानो गंगा की तरह अनेक विभ्रम और विलासवाली थी । शरीर से इसे अपना पुत्र समझकर उसने अत्यन्त स्नेह से इसकी पूजा की। इतने में सुखावती आ गयी। कुमार ने कहा कि इसने अपनी शक्ति से मेरी रक्षा की है। दु:ख प्रकट करनेवाले विद्याधरों और मायावी अनेक दुष्टों से घूमते हुए और आपत्तियों में पड़ते हुए मेरी यह आधारभूत लता रही है। यह मेरे लिए चिन्तामणि, कामधेनु, कल्पवृक्ष की भूमि सिद्ध हुई है। यह मेरे लिए संजीवनी औषधि कष्टरूपी समुद्र की नाव जैसी है। मेरी प्रिय सखी Jain Education International For Private & Personal use only www.ja.649.org

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