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लसतावानविय
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मणिमयकुंडलमंडियकम दित्तद्रिकाणणेच्छवामठ।
सन्त्रावासजायणवनठासूगोयरियापिटानुदायसा सुनावनात्रापा
शिवाखयखणिधिनमश्कारुणपणमिगणनउमबा यविभिनपुखरूमादउणियापखालाधायउहाँ पदोदियह जानता श्रतमिवगमदरसुचता जास्वता स्वती विहार कहियवनदरिककुमार पहायण्वयम इंग्रवलोड्छ मयणेयंचमसम्मणेढाइट कवठवमई
धरियठपिडालवलाहलल्लखिजाणिनसिणेमिति पिवधाकदिनबुडशिकणिपशिचंधाला ध्यासरहनरसरकिकरहोजमरायोतिजगस्टकर। रहो कहकदश्रधिखलोमणियाविरकुदमुपपदताणाणिदारशाचा महापुराणात महिमहापरिसराणालंकारामहाकाष्पदंतविख्यमहासवत्सरहामनियमहाकवाविना हाकमारी विरहवामपणामवनासमोपरिलेटसमनालाइशाळाविनमाकरशातवाहनार दोपचक्रश्विमायुषिकमणासरततवयोम्पसजमानासपकारासवतियशक्तयवाहकासिहो
घत्ता-इस प्रकार श्रेष्ठ कुन्द-पुष्पों के समान दाँतों के मुखवाली सती सुलोचना यह कथा तीनों लोकों के लिए भयंकर तथा भरत नरेश्वर के अनुचर राजा जयकुमार से कहती है ॥२७।।
उस कानन में मणिमय कुण्डलों से मण्डित कानोंवाली छह कन्याओं को देखा कि तुम में अनुरक्त जिन को अशनिवेग विद्याधर ने सत्ताईस योजनवाले उस वन में बन्द कर रखा है। मैं करुणापूर्वक उन मृग-नेत्रियों को उठाकर अपने नगर में ले आयी हूँ। और उन कन्याओं को राजा के लिए सौंप दिया है। मैं दो दिनों तक बाट जोहती हुई, विद्याधर नगरों में घूमती रही थी। तब हरिकेतु कुमार ने तुम्हारी कथा विस्तार से कही थी। यहाँ आये हुए मैंने तुम्हें देखा। काम ने मेरे मन में अपना तीर चला दिया। हे देव ! मैंने वृद्धा का रूप धारण किया और बेरों से भरी हुई यह पोटली रख दी। पुण्डरीकिणी नगर में ज्योतिषी ने इस बात को जाना था और कहा था।
त्रेसठ महापुरुषों के गुण और अलंकारोंवाले इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का विद्याधरकुमारी-विरह-वर्णन नाम का बत्तीसवाँ
परिच्छेद समाप्त हुआ॥३२॥
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