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रुणेमंतवासनियहि पिसउल्लइसप्तिनपिसूनिदहे यवोप्यरुझिाव श्रीयालुराजासुधा वतीकपिवासती
उढायउादोर्हि विधदिलासोश्वासाबसणरुसेविवरहोग वालीकथना
यअतिसुहावणिमघरहो बुशिउमरलाहें चक्कदशापिंडनिदार
पाहाणवशालायुविमणिहारहि जणियविमारहि।
करीतेन्द्रनिहियम तेहिंविषियमद्विहिं सुचिसहहि णिपिन ADVERमणिसन्निहिया र ससुरेणसणिसाचदमुह कार विवाहका
लापवहातणवितहोवाणालोश्यल हियामधुविउश्याठाहे मामताममश्नस्तिहिविसवालसहायरुवसर्वितहोमिलिविधउकरूसदरिह सरसरमय जितसत्रराजाश्री एतरणहरिहि तणिरणिविसजणममुणिजियमर्नुस
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तब कुमार ने मन्त्रों से वशीभूत पिशाची से ग्रस्त कन्या का पिशाच दूर कर दिया। दोनों ने अपना हदय एकदूसरे को दे दिया। अभिलाषा के साथ दोनों ने एक-दूसरे को देखा। ईविश कुमार से अप्रसन्न होकर सुखावती अपने घर चली गयी। राजा ने समझ लिया कि यह चक्रवर्ती है और उस विश्वपति को अपने घर ले आया।
घत्ता-लोगों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाले मणि-हारों से उसकी पूजा कर राजा ने कन्याओं को अन्त:पुर में रख दिया। रूप की लोभी उन मुग्धाओं ने अपने-अपने मन में उसे प्रियरूप में स्थापित कर लिया॥१॥
ससुर ने कहा कि हे चन्द्रमुख, तुम विवाह कर लो। उसने भी उसका वचन देखा, उसका मुख देखा और कहा कि मेरा हृदय बन्धु-वियोग से दु:खी है। हे ससुर ! इसलिए आप मुझे वहाँ ले जाइए जहाँ मेरा भाई वसुपाल रहता है। उससे मिलकर मैं देवता और मनुष्यों के नेत्रों तथा हृदय को चुरानेवाली इस सुन्दरी का हाथ पकडूंगा। यह सुनकर सज्जन मन जितशत्रु ने वारिसेन से कहा कि इस सुन्दर कुमार को लेकर तुम अनेक सुखों को करनेवाली पुण्डरीकिणी नगरी की ओर शीघ्र जाओ। तब उस सुभग को लेकर जिसमें ग्रह घूम रहे हैं, ऐसे आकाशपथ से वारिसेन ले गया। रात्रि में राजा का मुख प्यास से सूख गया। वह विमलपुर नगर की ऊँचाई पर पहुँचा। विद्याधर राजा पानी देखने चला, और जैसे ही उसने
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