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यमूनड मणि तो पड् प रिडियण दरमणि मरण किंझरहिरिसदरि उहळ मिह चहविहर हरि रुपमत जडलकरमि पुलय कुविगयणि जैनधरम् । कमल के दिन जहि ।। ईसासमुको सिताहिकमा का रूख विम विरहेंज लियउजोयं च पचाविणिखणिहेल हरि से करमे लगन हनु निविसुविमियनमज्जयमि। तोकिंग सिणिद्दण्सुदेवमि ॥ इहजण दशवल संकुले कल रण कलथुले पुराण साहियेमि दिहा दिहिसरी २ । । हो यवि धीरा पइंजिलडारारक मि ॥ १० दल हतरंगंग कंपणं एत्र जानूजाये पूर्वपर्ण माणिमाण विचारमंळ सिंथपंथ सन्निहियमग्नणं जात शिकणमयखलं घी सुंदरा हिंविहियावलंघणं महघरचिदि। झंचि लग्न तामलीमसासमुग्नन, सिहरिकहरहरिणा विणिग्नया सूल, वसे। डूरंगयागयासा यमेवमहमणिहिंड जिज सकलमंस दर्दिक जिस पडियविडविडियरमानलं घुलिसमदि वर्लीरुर्विसल रुवरिधिनिजिम सोई संकिजा माणेसाहा व उहि किस्त्राणदाश्णाम मणपंग एप राणा, सइ निरखि नसुरहिपरिमलो करडगलिय च विहलियमयन लो (खुलि
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ऐसी विद्याधर स्त्री प्रकट हुई और बोली- हे पुरुष श्रेष्ठ, तुम्हारे कष्टों को दूर करनेवाली, तुम्हारी मैं यहाँ स्थित हूँ। तुम जो कहते हो उसे मैं अनायास कर देती हूँ। मैं आकाश में जाते हुए प्रलय के सूर्य को भी पकड़ सकती हूँ । कमलावती के लिए तुमने जब अपनी दृष्टि दी थी तब ही ईर्ष्या के कारण हे स्वामी ! कन्या की दया से तुम्हें विरह में जलते हुए देखकर अपने घर ले जाते हुए और हर्ष से मिलते हुए हे प्रियतम, तुम्हें यदि मैं एक पल के लिए भी छोड़ती हूँ तो क्या मैं रात को सुख से सो सकती हूँ !
घत्ता—दुष्टों से व्याप्त तथा जिसमें युद्ध के लिए कोलाहल किया जा रहा है ऐसे जनपद में, 'मैं' किसी दूसरे को अपनी आँखों से न देखूँगी और दृष्टि से अदृश्य शरीर होकर धैर्य धारण करते हुए मैं हे आदरणीय! तुम्हारी रक्षा करूँगी ॥ १० ॥
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सुधारती श्रीया लसेतीवशीक नं।
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जब तक प्रिय के अन्तरंग अंग को कँपानेवाली यह बातचीत हुई तबतक जिसने अपनी प्रत्यंचा पर तीर चढ़ा लिये हैं तथा जो माननीय स्त्री के माननीय विस्तार को नष्ट करनेवाला है ऐसे दुष्ट मेघ को कामदेव जानकर सुन्दरियों ने आकाश का उल्लंघन कर लिया। इतने में नभ और धरती तथा दिशारूपी दिवालों को हिलानेवाला भयंकर शब्द उत्पन्न हुआ। गज पहाड़ की गुफा में रहनेवाले हरिणों के समान भय के कारण दूर चले गये। महामुनि ने अपना ध्यान केन्द्रित कर लिया। मृगेन्द्रों ने क्रोध के साथ गर्जना की। वृक्ष गिर पड़े। रसातल फूट गया और भय से विह्वल भूमितल हिल गया। तब अपनी रुचि ऋद्धि से इन्द्राणी को जीतनेवाली सुखावती को मन में शंका हुई। पुष्टि और कल्याण को देनेवाले आकाश के आँगन में स्थित राजा श्रीपाल ने स्वयं देखा । एक हाथी जो सुरभित गन्धवाला था, जिसकी सूँड से अविकलित मद की जलधारा बह रही थी,
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