Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 655
________________ प्रापालटछाकर पिटकंकाकडलेहिंवरहारदोरमणिउजालहि लियसाहिबजयासिरिलंपडहि हरिवाहणक्षम वेयरडेहिं चितिउदाहिपिसमहलहिं याककियउसमेहलेदिन थिठकमाह माया सावीरितरणने संधारित गायवज्ञविनाविपगपहसेविाय नपखयारिमठानगियादिजचमूहिकलहिय तकणविकहि विणसलहियाखगनाहनखरुमलियाई महिलायारूनिया मुठ मणरविसंजायापरिसुजिहावित्रचसेसविकहिलतिहात । गिमणिवितणसमासियल बालासामधुपविलसिमागविज्ञा वज्ञनिटमंदिरहो निगरमियतहोसुंदरदासह जेवयरिहि हरावण्ठिसकासुणरुचश्माणपिउराइखंडरसायजेरिसरसहयहोसहवनपुतरिम किंवणमितिडवण्मुहियटाणिझंतहातासुविणिदिया मुहतामरसुक्श्रायाससरदास इविनसिउच्चवलंघहर जगगस्यमगयापुनिराश्यअहंसवलेपपलाटाठाता पनि यसमितिणि विणिमनिणि चिंतियतणमुहावज्ञपविण्मणहारिणदेविसडारिए कारख श्मश्रावशारणाहणिजाणिमिलनउकणकहि किंजावमिकिंधुउमरमिजहि रवियरपजाल उसने कंगन कुण्डल से सम्मान किया। बड़े-बड़े हार-डोर- मणियों से उज्ज्वल तथा देव-संग्राम की ले गयीं। बताओ कि अपना प्रिय किसे अच्छा नहीं लगता ! गुड़ और रसायन जैसे मीठे लगते हैं। ले जाते विजयश्री के लिए लम्पट तथा हरिवाहन तथा देव धूमवेग दोनों योद्धाओं ने विचार किया कि मेखला धारण हुए मैं क्या वर्णन करूँ? त्रिभुवन को प्रसन्न करनेवाला वह उठ गया। चंचल मेघों को धारण करनेवाली करनेवाले तथा शान्त भाव की इच्छा रखनेवाले हम लोगों ने यह क्या किया! आकाशरूपी नदी में उसका मुख खिले हुए रक्तकमल की तरह दिखता है । जग में श्रेष्ठ, महान् शोभित आकाश घत्ता-कपटी मायावी कन्यारूप में युद्ध में स्थित शत्रु को भी हमने नहीं मारा। इसका नतीजा क्या हुआ? को उसने अनन्त भगवान् की तरह देखा। विद्या नष्ट होकर चली गयी और गुण-गण को दूषित कर हमने केवल अपने को नष्ट किया।॥८॥ घत्ता-फिर उसने तन्त्र-मन्त्रवाली अपनी स्त्री सुखावती का ध्यान किया। हे सुन्दरी! देवी आदरणीया!! तुम्हारे बिना इस आपत्ति में मेरी कौन रक्षा करता है? ॥९॥ गत दिन हम लोगों ने जो कलह किया, उसकी कहीं भी किसी ने सराहना नहीं की। उस विद्याधर राजा ने नरवर से पूछा कि तुमको महिला रूप में देखा था, फिर तुम जिस तरह इस पुरुष रूप में हो गये वह समस्त वृत्तान्त कहिए। तब उसने संक्षेप में कहा कि यह सब इस कन्या की सामर्थ्य से घटित हुआ। विद्याधर राजा मैं किसी के द्वारा कहीं ले जाया जा रहा हूँ। यहाँ मैं जीवित रहूँगा या मर जाऊँगा! यहाँ मैं यह नहीं अपने घर गया। और उस कुमार के शरीर से नींद रमण करने लगी। सुख से सोते हुए उसे विद्याधरियाँ उड़ाकर कह सकता। तब जिसका मुकुट-मणि सूर्य से प्रज्वलित है Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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