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Yamunad Mani, the jewel, is like a blazing fire, burning with the heat of separation. The Jain Dharma, like a cool breeze, soothes the pain. Like the lotus blooms in the sun, so does the soul find solace in the presence of the Divine. The Lord, seeing Kamala's plight, was consumed by sorrow. He was like a burning flame, yearning for her. His love for her was so intense that he could not bear to be away from her even for a moment. The wicked ones, filled with malice, were plotting to destroy the world. They were like a storm, threatening to engulf everything in its path. But the Lord, with his unwavering faith, stood firm. He was like a mountain, unyielding in the face of adversity. The Lord's love for Kamala was so powerful that it shook the heavens and the earth. The gods and goddesses were amazed by his devotion. Even the animals were moved by his love. The Lord's love was a beacon of hope in a world filled with darkness. It was a testament to the power of love to overcome all obstacles. The Lord's love was a gift to the world. It was a reminder that even in the darkest of times, there is always hope.
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________________ यमूनड मणि तो पड् प रिडियण दरमणि मरण किंझरहिरिसदरि उहळ मिह चहविहर हरि रुपमत जडलकरमि पुलय कुविगयणि जैनधरम् । कमल के दिन जहि ।। ईसासमुको सिताहिकमा का रूख विम विरहेंज लियउजोयं च पचाविणिखणिहेल हरि से करमे लगन हनु निविसुविमियनमज्जयमि। तोकिंग सिणिद्दण्सुदेवमि ॥ इहजण दशवल संकुले कल रण कलथुले पुराण साहियेमि दिहा दिहिसरी २ । । हो यवि धीरा पइंजिलडारारक मि ॥ १० दल हतरंगंग कंपणं एत्र जानूजाये पूर्वपर्ण माणिमाण विचारमंळ सिंथपंथ सन्निहियमग्नणं जात शिकणमयखलं घी सुंदरा हिंविहियावलंघणं महघरचिदि। झंचि लग्न तामलीमसासमुग्नन, सिहरिकहरहरिणा विणिग्नया सूल, वसे। डूरंगयागयासा यमेवमहमणिहिंड जिज सकलमंस दर्दिक जिस पडियविडविडियरमानलं घुलिसमदि वर्लीरुर्विसल रुवरिधिनिजिम सोई संकिजा माणेसाहा व उहि किस्त्राणदाश्णाम मणपंग एप राणा, सइ निरखि नसुरहिपरिमलो करडगलिय च विहलियमयन लो (खुलि ३१ ऐसी विद्याधर स्त्री प्रकट हुई और बोली- हे पुरुष श्रेष्ठ, तुम्हारे कष्टों को दूर करनेवाली, तुम्हारी मैं यहाँ स्थित हूँ। तुम जो कहते हो उसे मैं अनायास कर देती हूँ। मैं आकाश में जाते हुए प्रलय के सूर्य को भी पकड़ सकती हूँ । कमलावती के लिए तुमने जब अपनी दृष्टि दी थी तब ही ईर्ष्या के कारण हे स्वामी ! कन्या की दया से तुम्हें विरह में जलते हुए देखकर अपने घर ले जाते हुए और हर्ष से मिलते हुए हे प्रियतम, तुम्हें यदि मैं एक पल के लिए भी छोड़ती हूँ तो क्या मैं रात को सुख से सो सकती हूँ ! घत्ता—दुष्टों से व्याप्त तथा जिसमें युद्ध के लिए कोलाहल किया जा रहा है ऐसे जनपद में, 'मैं' किसी दूसरे को अपनी आँखों से न देखूँगी और दृष्टि से अदृश्य शरीर होकर धैर्य धारण करते हुए मैं हे आदरणीय! तुम्हारी रक्षा करूँगी ॥ १० ॥ Jain Education International सुधारती श्रीया लसेतीवशीक नं। ११ जब तक प्रिय के अन्तरंग अंग को कँपानेवाली यह बातचीत हुई तबतक जिसने अपनी प्रत्यंचा पर तीर चढ़ा लिये हैं तथा जो माननीय स्त्री के माननीय विस्तार को नष्ट करनेवाला है ऐसे दुष्ट मेघ को कामदेव जानकर सुन्दरियों ने आकाश का उल्लंघन कर लिया। इतने में नभ और धरती तथा दिशारूपी दिवालों को हिलानेवाला भयंकर शब्द उत्पन्न हुआ। गज पहाड़ की गुफा में रहनेवाले हरिणों के समान भय के कारण दूर चले गये। महामुनि ने अपना ध्यान केन्द्रित कर लिया। मृगेन्द्रों ने क्रोध के साथ गर्जना की। वृक्ष गिर पड़े। रसातल फूट गया और भय से विह्वल भूमितल हिल गया। तब अपनी रुचि ऋद्धि से इन्द्राणी को जीतनेवाली सुखावती को मन में शंका हुई। पुष्टि और कल्याण को देनेवाले आकाश के आँगन में स्थित राजा श्रीपाल ने स्वयं देखा । एक हाथी जो सुरभित गन्धवाला था, जिसकी सूँड से अविकलित मद की जलधारा बह रही थी, For Private & Personal Use Only www.jain637.org
SR No.002738
Book TitleAdi Purana
Original Sutra AuthorPushpadant
Author
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year2004
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size147 MB
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