Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 638
________________ णियावश्शासामुह विज्ञालाहसघरपश्स पुरयणसयतुजियहजिल्लासऽ दिहाहायस्वाहा अलिकतख दिहीमायरिसोमविसंठल सुरमहिहासमाविनिवसंतहासिरिवालदेवयसपनाह कदंतविमुक्कसिखसंशदिश्यरियणरायणसहासश्सवपसहितिधरितस्याङा घडामया लिडासिनराहिवनध्यडाबारामतरुपयगय जिगयागयदो गयणिक्षणावश्यणदेवरहातो वाहपएकणविण जगासंकलपणाश्वव्यागिरिसरिदरिपहराइसमनिए खतरावा सहिपाजामेतिए दिहामलियक्तिलालता एंडधुलियालमता विजवटचहविदमासी यमरणमणारहमश्मंतासिय जयहपियसंजोगणसंधति तोविज्ञापहनधार नियमा लाले किसाथस्लिापहि अण्डमाललियगिविमापहि सायवाहकरावदलियमयारहमारिण सहितदिजिसमागम उन्नतापवयसियदिहा ऋजुचंडणिसिसवपापहरे निनउपुणुजापिल अस्मिविण जिणपुजचमपरएसहवासंतियश्सयलर्दिसुअल सिडकडजिणतिलए। करेखमाला अवरडकप अवरठसदिन अवरविलमहामहिना लायवेश्बईसह गठरवियाहवारी मुहपडबिम।।२६ एचकष्मिणगयसासंदरिद्ववादीसिरिसिहरुपरि ३५ जो प्रकाश से भास्वर है, सातवें दिन आयेगा। और विद्यालाभ के साथ घर में प्रवेश करेगा। समस्त पुरजन वियोग में शोषित देखा। मरण की इच्छा रखनेवाली उसे मैंने अभय दान दिया कि यदि मैंने तुम्हारे प्रिय संयोग भी यही बात कहते हैं। मैंने भ्रमर के समान काले बालवाले तुम्हारे भाई से भी बात की, शोक से विह्वल की तलाश नहीं की तो 'मैं' विद्याधर पट्र को अपने भालस्तर पर नहीं बाँधंगी। इस बात को तुम जान लो माता से भी मिली। सुमेरु पर्वत के निकट निवास करते हुए, हे देव ! वे हा-हा श्रीपाल कहते हुए, उन्हें तथा और हे ललितांगी ! तुम अपने को कष्ट मत दो। तब भोगवती की विगलित मदवाली तथा रति उत्पन्न करनेवाली आक्रन्दन करते हुए, जिनके सिर के बाल मुक्त हैं ऐसे सैकड़ों परिजन और स्वजनों को भी मैंने देखा। वे सखी भी वहाँ आ गयी। उस सखी ने कहा कि-आज मैंने रात में चन्द्रमा को अपने गृह में प्रवेश करते हुए सब नगर में तभी प्रवेश करेंगे कि जब हे राजन् ! तुम उन्हें मिल जाओगे। देखा। और फिर वह निकल गया। सबने इसे दुःस्वप्न समझा और सोचा कि सवेरे सिद्धकूट जिनालय में घत्ता-नररूपी तरु चले गये, और गज भी गये और आ गये। जो गणिकाएँ हैं मानो वे वनदेवियाँ हैं। शान्ति के लिए 'जिनेन्द्र' की पूजा-अभिषेक करना चाहिए। हे प्रिय ! तुम्हारे एक के बिना लोगों से व्याप्त वह नगर भी वन की भाँति मालूम होता है ॥ २५॥ घत्ता-दूसरी सखियाँ जिनका मुद्रासहित लेख है। भोगवती की तू सहेली अत्यन्त गौरवान्वित है, जो मुझे भेजकर तुझे बुलाया॥२६॥ सैकड़ों पहाड़ों, नदियों, घाटियों और वनों को देखते हुए तब विद्याधर निवासों में तुम्हें देखते हुए मैंने आँखें बन्द किये हुए तथा जिसके सफेद गालों पर अलकावली हिल रही है, ऐसी चंचल विद्युतवेगा को तुम्हारे ऐसा कहकर वह सुन्दरी चली गयी। 'मैं' श्रीपर्वत के ऊपर चढ़ गयी। २७ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jantay.org

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