________________
अग्निकुंडे केप श्रीपाल स्थ॥
चित्रउजलणि जलते तदिविपरिडिङ अविमद जिय पोमय्या श्रजाय उसी यल जिणुखमरं तो सीइवि पखाइ दिसमुद्र फणिसम्मुनथा असि घडण कुछ वजय मिळजा को उ वडिय सुड्ड संग्राम काले जिएगुसुम रंत हरि घरहरं ति ना रवि पकाउ ह न संति करडयल गलिजम यजलपवा मृगुमशुमं तवरमऊ अरोक धावं पत्रगिरिवर समाए नरे दिन लोकवह विसाणु रस पिंजरू कुन रुवरुविखलइ जिया सुमरण्ड संकसिठव लवण गलियारुहिक कर सडिया अवाह कुडकुड़ा विसेस खरखासजलो युरअणियो या जिसुमिरत ईणासं तिराय निळास लिखसरमयदियते करिमयरमधछुन लेते माणिक किरणमाला विकलं हो लिये जाणवत्र जिसुमत अलगर र उद्देश्मिकया विस मुद्दिजिणुसुमरंत मंगल है। ति परिसंखल वलय परिगति त्रात्रुविमित्रहवं तिनि डिविला उवास ईरु जिणु सुमरंत हं होइ । खग्नुवि कमल सकेसरु ॥ १११ ॥ सरिजङवास है। चय
धत्ता- जलती आग में डाला वह भी उसी में अविकल स्थित रहा। जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलों है। जिसमें घावों से रक्त बह रहा है, हाथ और नाक सड़ चुके हैं, ऐसा नष्ट नहीं होनेवाला कष्टकर बचा के लिए अग्नि भी ठण्डी हो गयी ॥ १० ॥
हुआ कुष्ठ रोग, क्षय, खाँसी और जलोदर के द्वारा शोक उत्पन्न करनेवाले रोग जिन भगवान् का स्मरण करने से नष्ट हो जाते हैं। जिसमें अथाह पानी है, जिसमें स्वरों से दिगन्त आहत है, जिसमें गजों, मगरों और मत्स्यों की पूँछें उछल रही हैं, जो माणिक्यों की किरणमाला से विचित्र है, जिसकी लहरों से बड़े-बड़े यानपात्र विचलित हो उठते हैं, जो जलचरों से भयंकर हैं, ऐसे समुद्र में भी जिनवर का स्मरण करनेवाले कभी नहीं डूबते ।
११
जिनेन्द्र भगवान् का स्मरण करनेवालों को सिंह नहीं खाता। विष से युक्त दोमुखी नाग भी उसके समक्ष नहीं ठहरता। जिसमें तलवारों के संघर्ष से उत्पन्न आग से ज्वालाएँ उत्पन्न हो रही हैं ऐसे सुभट संग्राम का क्षण आने पर भी जिन भगवान्' का स्मरण करनेवालों से शत्रु थर-थर काँपते हैं और धीर होते हुए भी पीछे हट जाते हैं। जिसके गण्डस्थल से मदजल की धारा बह रही है, चंचल भ्रमर-समूह गुनगुना रहा है, जो गिरिवर (हाथी) दौड़ता हुआ आता है, जिसके दाँत बँधे हुए (नियन्त्रित) हैं, जो हृदय पर आघात कर रहा है, ऐसा पराग से पीला गजवर भी जिनबर के स्मरणरूपी अंकुश से नियन्त्रित होकर लड़खड़ा उठता है और मुड़ जाता
Jain Education International
घत्ता- शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। वर्षा भी अच्छी और दिन भी अच्छा रहता है। जिन का स्मरण करने से तलवार भी परागवाले कमल की तरह हो जाती है ।। ११ ।।
१२
वह राजा आग से अक्षत शरीर निकल आया।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org