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श्रीपालकवि द्यावरमारणक श्राए॥
शयितामाश्यासडधाहवसमचाहणुढलपुतहलमसल सहलहलवकिहिमाश्ऋज कहिहोज्ञान कर्टिका जाश्याणिविपवेदिठखटारादि णंपिनयालिदिननरहि सिहरिपलवियजलहरहिं एंदिवसुदिवसणाहहंकरदिी
चंदतरुवसविसहरहिं हम्मश्नजाम्बकरियाहरहि जा। एप्पिणुसरखरसारणालहसामुहलुचियसिसमराख कपट गयानकालविसमतु साधपियवदसिमणिविपत अवलाय विलिसणावियाह वालयअहसकिच्छमारुनउदिहते हिंसोक्तुक श्रमाणिहिंसदएजेच्या उद्यायविध रिहछु अहिणवर्कचणवणए पढनएजिगह वस्सणि हिसउँकमाणामाकरिणिविकहिविकलावणा गयसंहार पिलमणिलणासुनिनमुहहहामिलदर्कत पेहत्तरफा लिहसिलायलंत धरणासुताश्मुझपरहिछापकासकामम
सिष्टवैत्याल यलेश्याप्पानीषा
अज्ञानियों को सर्वज्ञ दिखाई नहीं देते। आज हमने शत्रु पा लिया। अब वह कहाँ जायेगा? वह कहाँ का राजा है? और कहाँ राज्य करता है? घत्ता-अभिनव स्वर्ण की तरह रंगवाली उस कन्या ने शीघ्र ही कुमार को उठाकर 'जिन-मन्दिर' की यह कहकर विद्याधरों ने उसे उसी प्रकार घेर लिया जैसे पुंश्चलियों ने प्रिय को घेर लिया हो। मानो मेघों पूर्व दिशा में रख दिया॥८॥ से अवलम्बित सूर्य की किरणों ने दिवस को घेर लिया है, मानो चन्दन के श्रेष्ठ वृक्ष को सपों ने घेर लिया हो। और जबतक फड़कते हुए ओठोंवाले उन विद्याधरों से वह आहत नहीं होता तबतक कमलों के सरोवर को देखकर कि जिसमें हंसनियों के मुखों द्वारा हंस-शिशु चूमे जा रहे हैं । यह देखकर कि कन्याएँ जलक्रीड़ा हथिनी की तरह वे विद्याधरियाँ क्रीड़ा-वन से अपने-अपने घर चली गयीं। अपने मुख से जिसने चन्द्रमा समाप्त करके चली गयी हैं वह प्रिय सखी अपनी मणि-वापिका पर आ गयी । शत्रुसेना के उपद्रव को देखकर की कान्ति को पराजित किया है, ऐसे स्फटिक मणि की चट्टान को देखते हुए राजा को उसने मुद्रा से रहित उस बाला ने कुमार को छिपा दिया। उन विद्याधरों को वह विद्याधर उसी प्रकार दिखाई नहीं दिया जिस प्रकार इस प्रकार देखा,
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