Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 644
________________ तोतहिंश्रवसरितहिंचडिमागिद्दण्दनाफेडियापधुरखडसिविनगामिणायसुमुहावई एमहसामिणीए जलरमणकजसंकेयाउइदखगघश्चीवडणाश्याठाअलिवियगयलंदियर ध्या अखत्रहिककरहिंगयान तदिगयइमिल्यिसमविनाअवरधिन रिदबारमिय झुकसाकरणिमनवहति असमंजसधउपस्तेघदतियहरजाणिनिमडापिसाप महर्सि साहलमहालयाला अळिवशीखवरदाताहमाणुदलवा अंगुलिथएखादा बड़ा सरूमपल्लखिवाजोजात्रावश्तहातहासमाहानियतणुसरिकससिसियजसाझेवितहार सुअवमहापसायावचनासपिसणसखड्सावासविमाषविलविवाधिविहवठाएतरिक्त असणिवउससहायरिरुउनिहालमाणु गउसोपाहणेखरलापुताए खेसारतहिपतरविर उमुपति मद्धमऊजेवहिणिसयललिपति अपेक्वंमुणियपवंचएणतामखिउत्ताई ऊसमवपणासुपरिहियदिहियमूदाणागलमयरेखारदिएण दहन्छसायच्यासपाहिम दिग्धप्पणलायपर्हि विषमृदिएकरमजिरिसरणे सघउमसासमियलिसवाणु कारतगणवतसाङ गसाधारूलिसामगडडाजोअग्नश्हाहश्चक्कपाडाणिकउसापद्धर 33 सिखिलएडाधिताधिस्मास्टरपन जोधारूदललावश्यवसाधम्मवाणु णारिसराईतावर उस अवसर पर उसकी दासी ने कहा कि तुमने अपने हाथ से मुद्रिका क्यों हटा दी? हंस-शावक के समान गतिवाली बीच जिसके अपने विमान में तरह-तरह के ध्वज लगे हुए हैं, ऐसा अशनिवेग आया, और अपनी बहन का मेरी स्वामिनी सुखावती, जलक्रीड़ा के काम के लिए संकेतित विद्याधर कुमारियाँ जो यहाँ नहीं आयी हैं, भ्रमर रूप देखकर तीव्र सूर्य के समान प्रवाहवाला वह आकाश-मार्ग से चला गया। वहाँ पर दूसरे बहुत-से प्रचुर से चुम्बित गजों पर अवलम्बित ध्वजाओंवाली जो कहीं और चली गयी हैं-(वे) वहाँ गयी है और मुझे तुम्हारे विद्याधर भी नहीं जान पाते हैं, और सब उसे मेरी बहन है-मेरो बहन है, यह कहते हैं। तब एक ने जिसने पास छोड़ा है । हे राजन् ! एक और गुप्त बात सुनिए, कन्या के लिए ईर्ष्या प्रदान करनेवाले वे दोनों विद्याधर निश्चय इस प्रवचन को जान लिया है, ऐसे कुसुमचक्र माली ने उस समय कहा कि सुपरिस्थिति को देखने में अभ्रान्त ही तुम्हारे साथ असामंजस्य करेंगे। यह जानकर उर्वशी से भी अधिक सुन्दर मेरी रानी सुखावती ने- है तथा जो पेड़ पर चढ़ा हुआ है ऐसे उस नागरिक ने विद्याधरों से कहा कि मैंने देखने योग्य चीज में सुख घत्ता-विद्याधर राजा शत्रु है, इसलिए उनका ज्ञान नष्ट कर दिया और हे स्वामी ! इस अंगूठी के द्वारा उत्पन्न करनेवाले अपने नेत्रों से स्वयं देखा है कि वह कन्या बिना मुद्रा के पुरुषरल है। मैं सच कहता हूँतुम्हारा स्वरूप बदल दिया॥६॥ झूठ वचन नहीं बोलता। जो गुणवान् साधु, गम्भीर तथा चन्द्रमा के लिए राहु के समान शत्रु कहा जाता है और जो आगे चक्रवर्ती होगा निश्चय से यह वही राजा श्रीपाल है। हे महानुभाव ! जो-जो आता है, उसे अपने शरीर के समान तथा चन्द्रमा के समान श्वेत यश से युक्त पत्ता-धनुष की डोरी के अग्रभाग पर स्थित यह वही कामदेव का बाण है जो स्त्रियों के शरीर को बहन के रूप में अपने को सोचना और इस प्रकार समुद्र के समान गर्जनबाले दुष्टों को प्रवंचित करना। इसी सन्तप्त करता है ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal use only www.jan2625 org

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