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मणिवा पिकामा हिले घाल्या श्री पालुखुषावती नि
चोश्न दाणवास जिप हरु जीव दयावास श्रवनं जावखगेंड तिसिस सुहिमुददंसणपाणीय तिसिरु तामायाइमवचणमई मिनसुंदकरुनाव मनमर्श पियजी वधम्मर स्वयमईये माणवाविदि मिहिन सुहाव पलटन तिसिस्यूपेक्षमाणु जलदरवहजनवा हियविमाणु यतमुदहिव वराम तडिवेयामारुगरे सरास का सहा निनियम हा कठमाण
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वणाराचिमुद्दिया गयपन्न सुहावरावरकावि प्णामेण सुटला कुवादि ॥ घता पवईदा वरणेचा राय हंससदचा सिणि पाणियव | काणेजक सोदश्वाविविला सिणि 141 कष्ण हकारआमले छुजर
लका लहेदेतिन कमलदतु । तामेक्ववित्तरुणियादिहताए। गुइठ सरुपरियाणिउ इमाय / ऐतदिरा यंनुद्यमतेजष्णा पाउदिन विज्ञवेयश्रव्यणिउसमाहर्णेयुलाई तिमरू धारिधिउमंगीउ ।
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शीघ्र ही उसने मद झरनेवाले हाथी को प्रेरित किया। और जिसमें छह (षटकाय) जीवों की दया निवास करती है, ऐसे जिन मन्दिर में पहुँचा। जिन मन्दिर में जबतक सुधीजनों के लिए दर्शन के लिए तिसिर नाम का विद्याधर पहुँचता है, तबतक प्रवंचना बुद्धि रखनेवाली मायाविनी वह शोभावती उस सुन्दर को उसी प्रकार ले गयी जिस प्रकार हरिणी हरिण को ले जाये। प्रिय के जीवन रूपी धान्य की रक्षा के विचार से उस सुखावती ने उसे एक मणिबाग में रख दिया। जिसने आकाश में पवनवेग से अपने विमान का संचालन किया हैं, ऐसा वह तिसिर विद्याधर कुमार को नहीं देखकर लौट आया। यहाँ पर उस मुग्धा ने अभिनव वर उस राजा को हाथ की अंगुली में पहनी गयी तथा मनुष्यों के नेत्रों का मर्दन करनेवाली अँगूठी से विद्युतवेगा के आकार
श्रीयाल एकश्री वाषिकामादश्र
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का बना दिया। वह वहाँ से चली गयी और वहाँ पहुँची जहाँ सुखोदय नाम की दूसरी बावड़ी थी। घत्ता- वह बावड़ीरूपी विलासिनी शोभित थी। नव नीलकमल ही उसके नेत्र थे। राजहंसों के साथ निवास करनेवाली उसने जलरूपी वस्त्र पहन रखा था ॥ ५ ॥
वह कन्या जलक्रीड़ा के लिए अपने कर-कमल को बढ़ाती हुई जैसे ही कन्याओं को पुकारती है वैसे ही उसे एक भी कन्या दिखाई न दी। इसने जान लिया कि वे तालाब से चली गयी हैं या वे सरोवर को चली गयी हैं। यहाँ राजा ' श्रीपाल ' ने उद्दाम वेगवाले अपने विद्युत् रूप को देखा। अपने महत्त्ववाली अँगुली को उसने हटा लिया और अपना रूप धारण करके स्थित हो गया। उसने अपना मन्त्र पढ़ा,
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