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कुछ निहिन्नमवालजहिताहरिपवडावयवतहिंायचमभवलनिझियउ सधासहिविना रातजियनाशातिविपन्नएपिंगलकरपादादातासणरकससासम विजएवमियन जडहा
उउइविषमलिततोहट पिवपिववाहलणतिहपीयनसुहडाचनविकिपिविसामठास श्रीमालकऊस
यहिरिसिरिदिहिमहिकह देविहठसासबासहि बीमधी विद्यासि
मिहानु वारपरमी तापविलोम्यहाच लइदिबविजा। सामळे पियवासिनतेपणियह सोजायउनुपरविनव जोपा नापतउरवनराहिवनदा पसगाइसाहकेटमुहंसा
मिठोगुहार्किकरुपसणगामिहजोकहितसित्रासिरिसि विमपहिसाहिहासिस्वविहिनतपहिं सुहडसशपिणिरवजराजाणिसिस सिद्धपकिन याघनावारहसवकरइहवसिठ फलकालेहविज्ञहतसिउवश्वणलविलम्हारिसह महास निरअम्हारिसदारिख यसपविगठनहरुजावहिपहरचयारिविणिहिजतादिगलिया रमणिसमिमदिवायस संचलिनवसुवालसहायरूरणेसवंताक्षणपिविही जरुसमितिणितरु ३०
घत्ता-शोघ्र ही उस बालक को वहाँ फेंक दिया गया कि जहाँ पवनवेग' का पुत्र हरिकेतु' मन्त्र का बोला कि आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका आज्ञाकारी सेवक । मुनि-बचनों के द्वारा जो कुछ कहा गया ध्यान करता था। और बल से जीते गये जिसे सर्वोषधि विद्या ने डाँट दिया था।॥१७॥
था, उसे मैंने आज अपनी आँखों से देख लिया। दुःसाध्य निरवद्य सिद्धविद्या के द्वारा मैंने आपको अच्छी तरह १८
जान लिया। लाल-लाल आँखों और पीले बालोंवाली और दाढ़ों से भयंकर राक्षस का वेष धारण किये हुए विद्या बत्ता-बारह वर्ष तक मैं वहाँ रहा और फलकाल के समय आज विद्या ने मुझे पीड़ित किया। देव ने ने जैसे-जैसे वमन किया, पियो-पियो कहने पर कुमार ने अंजली में भरकर उस-उसको उसी प्रकार पिया। तुम-जैसे लोगों के लिए लक्ष्मी दी और हम लोगों का उद्यम (पुरुषार्थ) व्यर्थ गया॥१८॥ वह वीरचित्त उससे जरा भी नहीं डरा। राजा उससे पूछता है कि तुम ही-श्री-धृति-कीर्ति वा मही क्या हो? वह देवी कहती है कि मैं वह सर्वोषधि विद्या हूँ, हे बीर ! जो तुम्हें परमार्थ भाव से सिद्ध हुई हूँ। तब उस इस प्रकार कहकर जैसे ही वह विद्याधर वहाँ से गया वैसे ही चार पहर बीत गये। रात बीती, सूर्य उदय वृद्धावस्थावाले ने उसे देखा। प्राप्त है दिव्यविद्या की सामर्थ्य जिसमें ऐसे अपने हाथ से उस कुमार ने अपने हुआ और वसुपाल का भाई चला। जंगल में चलते हुए उसने एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई एक बूढ़ी स्त्री को शरीर को छुआ। उसका फिर से नवयौवन हो गया और तब विद्याधर राजा का बेटा आया। वह सिन्धुकेतु देखा।
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