Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 634
________________ णमोसिंथविडङ्गशश्यविहमिपंथिकरघहोउप्पखिनघकरजाविधार्किएणय लावेरायविणोएपिठागाोयलणवविधलिभिरुहेवि विहाडेसन्निपर्थ सविावश्विविदिविरचयसतिर सोलहवांटाऊ यर्किकरहिमहल्ले कवायदेसुकोमरवानशवहदवहर, परिचडावा॥ वपुडिजाशविकहतिमहासिहरहो अन्तरसेढिया हवयहहोपवावठणाखवाहिलाएछमहावश्यकया राहिलाजोधावमस्वपरिकह सोलहखारनेरसरम सिरकहाउजलवमठपवलानमालासोपरिणाश्सोलहनिवकाठगवारनियमियरामह मितिनावअग्तगमयुजचितिमा मेहविमापसिहजाणिपासूधरमपुकाणयुमला एथिक्कमहानदहोवहिज्ञादि प्रवरविवहाराश्यताहि माजलेससिएलविमथ। पिय आवेणिपथनियविणिपाठराणीमायतणयविउक्लवलाहलपिंड उलथविठा पसटिलचम्मविण्मविवणातरुतलेतासुजेपिदडेनिसमा निववालहोकरडसिरिमापयादि डनठहबठकमलापण कुहतहापहावीण्डेयनिहालविनिविदाणानिनितिमान ३ तब पथिक ने हँसते हुए कहा कि राजा की आज्ञा से गाय के सींग को नहीं दुहा जा सकता। हे सुभट ! मैं ने भी आगे चलने का विचार किया, और चल दिया। मेघ विमान शिखर को देखकर तथा भूतरमण बन को जाता हूँ। इस प्रलाप, राजविनोद और मिथ्याधर्म से क्या? ऐसा कहते हुए भी उसे रोककर पकड़ लिया। छोड़कर जिस समय कुमार महानगर के बाहर ठहरा हुआ था इतने में एक और वृद्धा वहाँ आयी-अत्यन्त उसने कुपित होकर शक्ति से स्तम्भित कर गोल पत्थरों की पीठिका उस शैल में बना दी और बुद्धि से श्रेष्ठ बूढ़ी, अत्यन्त जीर्ण। उसने अनुचरों से पूछा कि ये कौन-सा देश है ? कौन राजा राज्य करता है ? रास्ते में गोल पत्थरों की स्थापना घत्ता-बुढ़ापे से सफेद सिर और लम्बे स्तनोंवाली वृद्धा स्त्री ने आकर कहा कि हे आदरणीय ! मैं बहुत क्या उपयुक्त है ? तब अनुचर कहते हैं कि बड़ी-बड़ी शिखरों से युक्त विजयार्द्ध पर्वत पर 'पवनवेग' नाम दुःखी हूँ। ऐसा कुछ भी कहा और बेरों की पिटारी रख दी ॥२०॥ का विद्याधर राजा जो कि 'अक्षय' शोभावाला है, यहाँ का राजा है। सोलह विद्याधर राजाओं के द्वारा सीखी गयी इस पत्थरों की परीक्षा में जो मनुष्य सफल होगा उसको एक लड़की मिलेगी। वह गोरे रंगवाली शिथिल चमड़ी और अत्यन्त विद्रूप, वह पेड़ के नीचे निकट बैठी हुई थी। उसने राजकुमार का लक्ष्मी नवलावण्य से युक्त सोलह कन्याओं से विवाह करेगा। अनुचर अपने-अपने राजा के पास चले गये। कुमार के द्वारा मान्य कमलरूपी मुख नीचे किया हुआ देखा। भूख-प्यास और Jain Education International For Private & Personal use only www.jain 615.org

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