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वरुणा करुनि सेसा सयदल दो तंमणिमहिम अणियदि प्रथतरू कियजल दोश तातहिं नलं विमय जल संपत्र चारणमणि जमला मलुजा मुसरा रेनमापेमले पाठ परता वाणेवसुत वेवल जसुलमई जासु पाउ समईस
डाका मिसीलगुण वे कत्तल उप आमरि न पाठ ज्ञासुमइएकिंपिविधखि रसुपरमागमेणउकामर सु वसुजाण समिऋधम्मवसु सिरेके सजडत्तणुजासुगम ए] उसासचियाणि सन्त्रणन, महमयाड विजासुमन कजपंचेंदियकागजी वा तं रिसिजन दिसन स
धुर्बे अप्पन पिंटियर हाजविपण करमित कि त्रिठकिरपा समिच्च सुद्रवन् सिरिग विदेदप देसुम्दाक उस तैयार हो सुराग रिसिहर है। आम उत तो दिदि दिसतं हयधरतिळसरे पहाय कुरिंजयसुम तेपुहिम मुर्देवविजेण
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उस अवसर पर अपने दोनों हाथ उठाये हुए चारणयुगल मुनि वहाँ आये। उनके शरीर पर मल था, परन्तु उनके ध्यान में मल नहीं था। दूसरों को सताने के लिए उनके पास बल नहीं था, उनके सुतप में बल था। जिनका यश भ्रमण करता था, जिनका मन भ्रमण नहीं करता था। आकाश भग्न होता था, उनका शीलगुण नष्ट नहीं होता था। उनकी भौंहों में टेढ़ापन दिखाई देता था, उनकी मति में कहीं भी वक्रता नहीं थी। उन्हें परमागम में रस आता था, उनमें कामरस नहीं था। वे धर्म के वशीभूत थे, वे धन नहीं चाहते थे। जिनके सिर में बालों की जड़ता जा चुकी थी, परन्तु सात नयों को जाननेवाला उनका मस्तिष्क जड़ता को प्राप्त नहीं
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धत्ता नरश्रेष्ठ, विद्याधर राजाओं के गुरु ने निर्माल्य का कमल अपने हाथ में ले लिया, जो मानो सुन्दर हुआ था। जिनके आठों दुर्मद नष्ट हो चुके थे, परन्तु उन्होंने पाँच इन्द्रियों पर कभी दया नहीं की। ऐसे उन मधुकर ध्वनियों से कह रहा था कि पापरूपी जल से तर ॥ २ ॥
दोनों चारण मुनियों की उसने वन्दना की। स्वयंबुद्धि अपनी निन्दा करने लगा मैं आज भी इस प्रकार तप नहीं कर रहा हूँ। मैं अपवित्रता का कितना पोषण कर रहा हूँ!
धत्ता-लक्ष्मी के घर पूर्व विदेह में महाकच्छप नाम का देश है। सुमेरु पर्वत के समान शिखरवाले उस नगर से आया हुआ वह चारणयुगल मुनि उसे समझाता है ॥ ३ ॥
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जो युगन्धर अर्हन्त के तीर्थरूपी सरोवर में स्नान कर लेता है, वह संसार की ज्वाला में नहीं पड़ता। उस युगल में एक मुनि का नाम आदित्यगति था और दूसरे का शुद्धमति अरिंजय स्वयंबुद्धि ने उन दोनों से पूछा कि आप लोग तीन ज्ञानरूपी जलों के मेघ हैं, मेरे स्वामी
मेरगिरिपर्वत ऊपरिचयाल या चारण जगलु श्राय्य।।
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व इसंसारदर तदिपकुसाहा म्हइतिपाणपाणीयघणे मसामि
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