Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 489
________________ पिसायने निपङ्गलसाम चल्लेझिाणसाहियाधिरहिंशाणसाहियादढदिदिहणंतिसा। परजि। यातुहातिसासखसाबसायद सहेश्माहसीअयविश्पवागरारतरतरुककोटरी नियाहिदह कचुधाघणागमविषयमहादरलयालण्डनमिगिस्यालपारविससम्मुद्दोधिनातवश्मापाथ। अासपतणनयनवाहितणमय महाखलेविसामिण नमसिकरणयामिण ढवधरीसुना।। अणुधराससासया धरेविडरायन सिरिडरायपशवनयकालिया अचादमचकालियास। मादरममाश्याअमेयलयमाश्याघवा सम्वरविमाययवसादसाझाघवश्मरीकमहीयते । यराजपामइखक्रमकविलचखपबाइथललावापुसानमुपायलसिखचडजाइपति। सवयणारविंडघरमतिमंत्रनिम्मलमईया सर्वितिउमणेलच्छीमाणिजश्वमिवणमासगण निजी बनायवणेतारुण्ण असहायहाकायविपतिसिदिर्चिनेवापदमसहायारिहिजोधरिडसाहमादिति सातवहश्करहवचाखजधवलधखरुचारुवातदसरणववतणविसरझगंधवनयारण। यहोसवाट मदरमालिदसंदरिदजाय चितागश्मणगश्खतररयादवीएलाणमसविसायापडलेद्धा लिहिमश्कारमाणम्मिा सामनालिदिउसलंम्मि जाणावतारमणाडजहासानिरकेवरसिरिमश्वन हासाताणतणविधवढियबयपविपाइडलियाहरणुलाबागमतपदणकटझ्यदापमजदन। हाराहणियमहाधनाखममणपवणगशवयरगदवाउपलखेड्पराइदावाजधणिवणाइक्लियसिव बुद्धि का अपहरण करनेवाले पिशाच कामदेव को जीत लिया। जो चंचल चित्तबालों के द्वारा सिद्ध नहीं होती स्थिर चित्तवालों से सिद्ध हो जाती है, ऐसे जानो। जो दृढ़ धैर्य को भी नष्ट कर देती है ऐसी उस क्षुधा को फिर शोक छोड़ते हुए उसने चन्द्रमा का उपहास करनेवाले अपने पोते के मुखकमल को देखा । गृहमन्त्री जीत लिया। वह वशीजिन चलते हुए माघ माह की ठण्ड सहन करते हैं। वर्षाकाल में भी जो बानरियों को की मन्त्रणा से निर्मलमति लक्ष्मीमती ने अपने मन में सोचा-"हवा के द्वारा बन में दावानल ले जाया जाता भय प्रदान करता है, वृक्षों के कोटरों को भर देता है, साँपों के केंचुलों का प्रवाहित कर देता है, गिरते हुए है और पानी में निर्जीव नाव केवट के द्वारा ले जायी जाती है । असहाय व्यक्ति के लिए कोई भी सिद्धि प्राप्त जल को सहन करते हैं, ग्रीष्मकाल में भय से परिपूर्ण भयंकर पहाड़पर, धरती पर स्थित होकर जो मोक्षपन्थी नहीं होती। इसलिए पहले सहायतारूपी ऋद्धि की चिन्ता करनी चाहिए, जिस विशालभार को स्वामी ने उठाया, सूर्य के सम्मुख तप करते हैं। जिन्होंने भूमि के तिनके के अग्रभाग को नष्ट नहीं किया, और जो सत्य और उसे यह अप्रगल्भ बालक किस प्रकार उठा सकता है? जिस भार को धीर और धुरन्धर धवल (बैल) उठाता अन्तरंग से मुक्त हैं, तथा बड़े-बड़े दुष्टों को शान्त करनेवाले हैं, ऐसे स्वामी को नमस्कार कर उस समय है, उस भार से तो बछड़ा एक पैर भी नहीं चल सकता।" गन्धर्व नगर के राजा की मन्दरमाला सुन्दरी देवी वसुन्धरा की पुत्री अनुन्धरा अपनी सास के साथ (लक्ष्मीमती के साथ), छत्र की शोभा की तरह पुण्डरीक से उत्पन्न चिन्तागति और मनोगति विद्याधर थे। देवी ने उन दोनों भाइयों से कहा-"मेरे द्वारा किया गया, बालक को लेकर, पति के वियोग से चन्द्ररहित रात्रि के समान काली, अमिततेज की माँ (लक्ष्मीमती) अपने यह लिखित लेख मुद्रायुक्त सुन्दर मंजूषा में रखा है। तुम जाकर श्रेष्ठ रमणियों के लिए भी दुर्लभ श्रीमती भवन में आ गयी। के पति (वज्रजंघ) को यह लेख दो।" यह सुनकर, माता के पैर पड़कर, उपहार और आभूषण लेकर, ___घत्ता-फिर अपने पति की याद कर वह हंसगामिनी अपने शरीर को महीस्थल पर और नेत्रों के अंजन रोमांचित शरीर वे दोनों अपने पैरों की केशर से मेघों को लाल-लाल करते हुए चल दिये। से मैले केशर से लाल आँसुओं के प्रवाह को स्तनतल पर गिरा देती है-॥८॥ पत्ता-पवन की जैसी गतिवाला विद्याधर राजा मनोगति एक क्षण में उत्पलखेड़ नगर पहुँच गये। कल्याण चाहनेवाले वज्रजंघ राजा ने For Private & Personal use only Jain Education International www.jainelibrary.org

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