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हारसरी रहचान करेनि पानग्नगमण मरण मरेविस सिद्धिखरहरसरोड अमिंड डाउ रिसिवाना पत्र परिचडियहि विदिघडियहि दिनुसरी रुपपिणु सुकसंगठ अश्वगप्पा जोघणि चवही पण आणिसठजम्मु पणविननिपानियाव
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रक दियधम्म घणमणिमर्क हर्पिजरियमग्ने तेस स्पिड सिस्ट्रिलियन स्विपयनिवासः सिरिसाहमाणु वारदतोयपादिश्रायादमाणु पिद्धवृदीयपरिमाण दिम सेखससिप्पा हेत हिविमाण पविणा हा कधम्म विज्ञायामिद देवी नवते परमेसर कम सार्व मुफलिमाणिक दहमउधाणदेउन्नति। हिलकिमिरे तर सुख कि तलुमाण जाणिस रयणिमन्त्र हिणवलयदलदलसरिसनेश नेकलेसमझताव अपि मुमहावपरिगणिमगाव
उसने अवधिज्ञान से अपना जन्म जान लिया। जिन और जिनवर के द्वारा कहे गये धर्म को उसने प्रणाम किया। जिसमें सघन मणिकिरणों से मार्ग पीला है, ऐसे त्रेसठ पटलवाले स्वर्ग का अन्तिम पटल शिखामणि
वज्ञना निम्न निस श्रीर्थ सिविगतः मु नित्तिःसार्थः॥
अहमेन्द्र हुए। धत्ता-विधि से घटित परिपाटियों से दिव्य शरीर धारण कर और स्वयं को पुण्य शरीर और अत्यन्त सुन्दर (अच्छा ) देखकर ॥ ६ ॥
आहार शरीर का त्यागकर, प्रायोपगमन मरण के द्वारा, सर्वार्थसिद्धि के शोभित देवविमान में ऋषि वज्रनाभि के समान है उससे बारह योजन दूर श्री से शोभित सिद्धक्षेत्र में शिवपद का निवास है। वहाँ जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन प्रमाणवाले हिम शंख और चन्द्रमा के समान विमान में वहाँ धर्म की सेवा करनेवाले वज्रनाभि के आठों ही भाई अहमेन्द्र हुए। वे नौ ही पुण्य सम्पादित करनेवाले देव थे, जो विशुद्ध स्फटिक मणि के समान आभावाले थे। शरीर के मान में उन्हें एक हाथ बराबर ऊँचा समझिए। अभिनव कमल के पत्तों के समान उनके सरल नेत्र थे। शुक्ल लेश्यावाले वे मध्यस्थभाव धारण करते थे। अदुष्ट स्वभाववाले और गर्व से दूर थे।
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जयपुर तरह पियान मन्दिरमा
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