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गम्मा दिसानिया सासु दावे मोमो नडिलं नडलो नवविज्ञलोलो नमिता नसतन कामो न कोही नमा मानचित्र पहना दिमाग, समयेक सराय राय पिदाणं सहन्त्रेणना किं पिसा सासणेणी नग बोमराही स संपेसणणं उदासीपणलावंसकमक लोहारा संसंता वसंतीढ़ सो उम लोन वेधूप दिवसासो तुम धयारंमिलाप जडार्किनिमजंतिमि नमसविदेवंग भूमिणा हो चउझा! वैदिरालं महारघास महामंगलाल हिंविदि संतिर्दि अवलोश्न पोमाइड
दापुमा
ॐ
एसवाइ जिपड़ना
||२०|| ||सुखनलिनोदरसद्मनिगुणहत हृदया संदेवाह सति चोद्यमिदमत्र भरते । शुक्का पिस रस्वती रक्का।। श्रवकी पुरुष सवित नराहिवेण व दाणे हसुनिवहन डस्सिविपदं सागडलदर
अहिंसा के निवास आप स्वभाव से सौम्य हैं, न बालक हैं, न दम्भ है, और न ही वित्त का लोभ है, न मित्र, न शत्रु, न काम और न क्रोध। चित्त में न माया है और न प्रभुता का अभिमान आप राजराजा और दीन को समान भाव से देखते हैं। न छत्र से और न सिंहासन से और न गर्व से भरे इन्द्र के आदेशों से आपको कुछ लेना-देना। उदासीन भाववाले, अपने कर्मों का नाश करनेवाले निष्पाप आप की जो लोग वन्दना नहीं करते, वे लोग निश्चितरूप से लोभाचार के भृत्य हैं, और श्वास लेते हुए हा हा, व्यर्थ क्यों संसार में रहते हैं ! यति वही है जो आशाओं से रहित हो, आपने बन्धन काट दिये हैं, आप लोकबन्धु और दिव्यभाषी हैं। आप संसाररूपी कान्तार जलाने के लिए अग्नि हैं, आप प्राणियों के भावान्धकार के लिए सूर्य हैं। मूर्ख लोग मिथ्यात्व के जल में क्यों निमग्न होते हैं। तुम से महान् गुरु जीवलोक में दूसरा कौन है। इस प्रकार देव को नमस्कार कर, भूमिनाथ भरत अपनी प्रचुर सेना के साथ अयोध्या के लिए चल दिया। बन्दीजनों से मुखर, महातूय से निनादित तथा महीमंगलों से युक्त अपने भवन में उसने प्रवेश दिया।
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एणं मंजेननंदतिभाहं निरहं नरात्धु | हाकिंनरचा जश्सो निरासा चमं किष्पपा | जम्म कतार डादे किसाथ अमंलू वसावं अन्त्ररण् डमा दिप कोर जावलोप हरिहरणासणारा पश्होनियमंदिर धरणा सुरु सरसरु पुरुतरुणि पुष्पदतदरिसंतिसिं
धत्ता-हँसती हुई पुष्पों की तरह दाँत दिखाती हुई नगर तरुणियों के द्वारा भूमीश्वर भरतेश्वर देखा गया और प्रशंसित हुआ ॥ १४ ॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणों और अलंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत इस महाकाव्य में वज्रनाभि का त्रिभुवन संक्षोभन और जिनपूजा वर्णन नाम का सत्ताईसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ २७ ॥
सन्धि २८ अपने नगर में प्रवेश कर उस राजा भरत ने खोटे स्वप्नों के फल को दूर करने के लिए नाना प्रकार के दानों से समृद्ध
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