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संचाएबिमयगखापतणनअवकिनिलकावहिं अजविसंदरकाथरावहिं चंगठकि यूउरायचतन्त्रणा णिहियातितयणडज्ञसकित परणरणारिहल्डारणमारिहारतमा सिजदेवकुमारिह तेपउँमखश्याणनिस्यि नियजारविन्निपारसिया तंणिसुणापपुल नधुत्त पडिजपिठलरहादिवछता मकसमिहिंवादसुलोयण अफिसवणघडदामि। नहलतमहशवलमयदो युबमक्यारासिठशाजणवलणजितघणमंडल लामि उससुरुमशाहल सवलपरहंदावहिअई अजयरिककरवाचमवहाविश्वाचनवि लाहिं उडविणजाहिसद्धरामहि तस्थिवसरसिंहरकणारुण जमवाराहाबिलग्नावार ण अशडवंदहिश्रावाळिमा ककारिकगावलिसहिय एकुदतिडवरटोल पाईदैछ श्रावउचाई सारिकरिचरणतर्दतिहि णिवडियणचचिलीमाछितिहिंसरससमुज्जलतप लखंडहिं दोखंडादवनबढसडिदियो गनपाडिममृटिमणसिदरिधरणिवादग्रामिड वासरतहिसठियदि जलजयजमणिवज्ञपिठाइहायचहरणक्यसरळवणन एवहमायनसर। कवण येतहेवारहवियलिउलाहिट पन्चव्हमनुसयालयसाहिल एतहकालगायमसदिज्ञम् । गन्नदपसरमंडतमातमापतहकरिमोनियनिहायतहउग्नमिवईमरकतज्ञापनहेजया २६ ।
ऐसे मदगल महागज को प्रेरित करते हुए जयकुमार ने कहा-“हे अर्ककीति, तुम शीघ्र आओ। हे सुन्दर, के गज से आकर भिड़ गये। वे आठों के आठ चन्द्र विद्याधर कुमारों से प्रेरित थे और कक्षरिक्ख (करधनी) तुम आज भी देर क्यों करते हो? तुमने राजपुत्रत्व खुब अच्छी तरह निभाया, त्रिभुवन में अपयश का कीर्तन और वस्त्रों से शोभित थे। युवराज जयकुमार ने भी एक हाथी आगे बढ़ाया, मानो इन्द्र ने ऐरावत चलाया हो। स्थापित कर दिया है कि जो तुम परस्त्री, योद्धासमूह को मारनेवाली देवकुमारी में अनुरक्त हो? इससे तुमने शुत्रु के श्रेष्ठ गज से आहत वे गज दाँतों, गिरती हुई नयी झूलती आँतों, सरस उछलते हुए मांसखण्डों, दो राजा को आज्ञा को नष्ट कर दिया है । हे निर्दय, तुमने चार वृत्ति प्रारम्भ की है।" यह सुनकर भरत राजा के टुकड़े होती हुई दृढ़ सैंडोंपुत्र अर्ककीर्ति ने उत्तर दिया
__ घत्ता के साथ गिर पड़े और नष्ट हो गये मानो पहाड़ ही धरती पर आ पड़ा हो। आकाश में स्थित घत्ता-"तुम मेरे समीप आओ। सुलोचना-जैसी मेरे घर में घटदासी हैं। पूर्व से ही आश्वस्त में तो देवों ने 'हे नृप, जय-जय-जय' कहा ॥३३॥ तुम्हारे बाहुबल के मद के पीछे लगा हुआ हूँ॥३२॥
३४ जिस बल से तुमने मेघमण्डल जीता है और देवों सहित स्वर्ग में इन्द्र को सन्तुष्ट किया है वह बल तुम यहाँ रण शरों को अस्त कर रहा था और यहाँ सूर्यास्त हो गया। यहाँ वीरों का खून बह गया और वहाँ हमें बताओ, हम देखेंगे। आज तुम्हारी परीक्षा करेंगे। अभी तुम आवर्त और किरातों के साथ लड़े हो. तुम विश्व सन्ध्या की लालिमा से शोभित था। यहाँ काल मद और विभ्रम से रहित हो गया था और यहाँ धीरेबेचारे राजाओं के साथ भी युद्ध करते हो।" ठीक इस अवसर पर सिन्दुरकों से अरुण उसके गज जयकुमार धीरे रात्रि का अन्धकार फैल रहा था। यहाँ गजमोती बिखरे हुए पड़े थे और यहाँ नक्षत्र उदित हो रहे थे,
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