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सुलोचनानिजे गु विमाया ॥
च पपावकुसुमेर्दिण्उिचर सोरक डाक् फलसिरि संप्पनं इंदिनपरिकउलदिपडिवन्तरं घा इयर व तरुण असणेण पइंद उपरमेसर जिया अम्म जम्म मनुसरण जम निजिय वम्मेसर 301 चक्क किञ्चिदुजय जयण्यदं मड कारपेन ब्राइमघामहं पञ्चमरश्मजश्यविप
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कृवि तोवि
निवित्त्रिमा
झुश्राहार
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पुण्य-पापरूपी कुसुमों से नियोजित, सुख-दुःखरूपी फलों की श्री से सम्पूर्ण इन्द्रियरूपी पक्षिकुलों के द्वारा आश्रित ।
कुणिमसमीरहो। इसविततिषुत्तिमता दिय लविय करतायंथोल्लानिय बहस सामळे असमंजस रोउन्डरि यमही समाजस संधिहाकिं काहिं सुधरकरपल्लवन द्वायाहि जणगावजणुणिमुपविक्रम रिप निममुविसजिरे काम किसोरिए सिरिपाइ हे। सिरिन चावग्ना जयराम दो करण कपलग्ना जाय
घत्ता - इस प्रकार के संसाररूपी वृक्ष को आपने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा भस्म कर दिया है ऐसे है जिन, जन्म-जन्म में तुम मेरी शरण हो, कामदेव को जीतनेवाले आपकी जय हो" ॥ ३७ ॥
मेघे स्वरुपए युधुलो डिकरिघरि आए॥
३८
'मेरे कारण आघात करनेवाले अर्ककीर्ति और दुर्जेय जयकुमार इन दोनों में से यदि एक भी मरता है, और उसके बाद यदि इन्द्र भी मुझे चाहता है तो भी मेरी आहार, लक्ष्मी और कुत्सित कुणिम शरीर से निवृत्ति ।' इस प्रकार सोचती हुई, कायोत्सर्ग में स्थित पुत्री को पिता ने पुकारा- "हे सती, तुम्हारी सामर्थ्य से क्रोध से भरे हुए दोनों महायशस्वी राजा युद्ध से बच गये। शान्ति हो गयी। अब तुम क्या ध्यान करतो हो, हे सुन्दरी ! करपल्लव ऊँचा करो।" अपने पिता के बचन सुनकर कुमारी कामकिशोरी ने अपना विनय समाप्त कर दिया। वह जयकुमार के हाथ से उसी प्रकार जा लगी, जिस प्रकार विष्णु से श्री जा लगती है।
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