Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 610
________________ हितंणिमुणविरिसिणाचोलियठा पाविजमश्सल्लिदलसंपवहिनिम्मखुकरणितहाहियमिय बयणश्वहारमा तालिम संजपिनियुपिरिसिअर जिताविषिविसंवर्सि पईपठ्यदेव जायाझ्यकहिमिसर्वतश्यायाचपहपयडयल वंदियाळ तामुणिणायानिदिदाउँ का डहुडमईमंतिमन हाइहुन्छुमचिनियम हाडाङहमलासिबउ हाडहाइडमईवसिाठी खतबुकरहिनासजडश्चदिनवरसकेगाविसङ जिहाद नीमनिषिमाइक तिजगजखमिठहरावदितममिसजमिउंछिता ताइरुशि रिदेवदेवाश्वछाने यामकरु श्रम्हसचामरुससंगनगुरुवंदविस्मनहोमचलिए गमना जिणवरमग्नहोणिसातामसाविहाविमदि वस्यालाख जारपवहिआवविसिकरमठिम तहामाडसहविनाहिया मनप्यपरकेपलपाखण कंपविमसुखपुरलवणातह पकुखदाचामङ्मविमश्वविहाईवरामइपोमामामाणि मंडळविमल देमुजालुक्लजधरणियल तहियवसोपवण्व क्षयाने देवालयमारिसमागवनादि। पपश्णावाहिनियालिद कापश्चाहामध्यबिनजज्ञवायच्हमश्मोहपियाहयुरेखदेवहीं वह २० यह सुनकर मुनि ने कहा-'पापिष्ठ, मैंने जो अपने को पीड़ा दी, उससे अब मैं अपने को निःशल्य करता हूँ और उससे हित-मित वचन कहूँगा।" इस पर देव बोला-“हे ऋषि, सुनिए। हे स्ववशिन्, हम ही वे वह भीम मुनि धरती पर विहार करते हुए वसुपाल के नगर के शिवंकर उद्यान-पथ में आकर ठहर गये। दोनों हैं। आपके द्वारा आहत होने पर देव हुए और कहीं भी भ्रमण करते हुए यहाँ आ गये और आप के वहाँ उनका अशेष मोह नष्ट हो गया। सुरवर भवनों को कैंपानेवाला एक क्षण में उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो चरणकमलों की वन्दना की।" तब मुनि ने अपनी निन्दा की-"हा-हा! मैंने दुष्ट सोचा, हा हा मैंने दुष्ट चिन्ता गया। उनके एक छत्र और दो चामर थे। चारों ओर से सुरवर झुक गये। पद्मासन विपुल मणिमण्डप और की। हा-हा मैंने दुष्ट भाषण किया। हा-हा मैंने दुष्ट चेष्टाएँ कीं। मैं क्षन्तव्य हूँ, मुझे निःशल्य बनाओ। इस हेमोज्ज्वल धरतीमण्डल शोभित है। अपने स्वामी से रहित, तथा एक से एक विलक्षण चार व्यन्तर देवियाँ समय किसी के भी साथ मेरा वैर नहीं है। जिस प्रकार तुम लोगों के लिए उसी प्रकार त्रिजग के लिए मैंने आयीं। उसी अवसर पर पवन से उद्धत आठ की आधी (चार) देवियाँ और आयौं । पति के बिना, उन्होंने क्षमा किया। इस समय मैं मुनि कहा जाता हूँ।" दर्शन किये और यति से पूछा कि उनका पति कौन होगा? यति ने कहा कि इस नगरी में मति को मोहित घत्ता-तब दूर हो गया है मत्सर जिसका ऐसा वह देव चमरों और अप्सरा के साथ गुरु की वन्दना करनेवाली तुम सुरदेव की कर स्वर्ग चला गया, वह जिनवर के मार्ग से च्युत नहीं हुआ॥१९॥ Jain Education Interation For Private & Personal use only www.jan591

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