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जो सकेस इज एवन इ किन विना हररायाहिर धुनि धणियवेवरु वेयत्र सापरिणस इदयरविरक चकवाहिसिरिवाल महा पुजन दार महियवर्ग सावश विज्ञव्यापकरु जीव लाइ कुमारुकाइला सिकाइ होत काकम्पल धिश जाहेदन पियमसुदा समि बाल हलाला लिंग दसमि तंगिणे निगयगे होश। आलो श्यकुमारिकसह याद विरहाउरतेन श्रम र अन्त कुमरिन रमणला वरसगार संला सबुता उपवि स्त्रठ। घत्रा! ावलो एविसुं दरिसं दरिख। वणेण उखणे कुठ उयरि तंमुणि वरवित्तिदेड मल सकश्मइहेज ईड कश्म इन 11३ (आायनिसम) पिडिख ।। ठा सरि नाईसमुद्दा सप्मुमहा सरि चवश्स्वय्णुपिहेम्पिदळें एक घोरतव इसा मळें । लोमण सियपोहविद्वारा मरणु नका। सुविहोइउडाए हवि सोहिंज पियपेरकम्पितं पण दंड कि | सरकार तो विदेववी सासु किन वायरमन सवपुरा इं पत्र उणेपिणमरगय तोरण खेल होनप्यरिकवठ निदेलपुति हिंकदासिरितगुरुङ णिदियउ स्नॅकंबले संपिदिय च
जो इस दुःस्थित जनपद और विद्याधर राजाओं की रति से व्याप्त पुत्रियों की स्तनितवेग और पवनवेग से रक्षा करेगा, अपनी कान्ति से सूर्य के रथ को आहत करनेवाला वह महाप्रभु श्रीपाल चक्रवर्ती उनसे विवाह करेगा। तुम्हारा रूप मुझे हृदय में अच्छा लगता है। "प्रिय विद्युद्वेगा कठिनाई से जीवित है। कुमार कहता हैं कि तुम क्या कहती हो ? होनेवाले कर्म का उल्लंघन कौन कर सकता है। हे दूती ! तुम जाओ। मैं उस बाला का प्रियतम हूँगा। और उस बाला को लीलापूर्वक आलिंगन दूँगा। यह सुनकर दूती घर चली गयी, और एकदम दुबली हुई कुमारी को देखा। फिर वह विरहातुर वहाँ आयी कि जहाँ वह कामदेव था। रमणभाव के रस से आई वह कुमारी अपने पहले के तात से सम्भाषण करती हुई।
घत्ता - उस सुन्दर सुन्दरी को देखकर वे छहों कुमारियाँ एक क्षण को वन में भाग गयी हैं, मानो सुकवि की मति से जड़ मतियाँ भाग गयी हों ।। १३ ।।
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तेरह पंथियांन जैन मन्दिर
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वह विद्याधरी पास आकर बैठ गयी। हाथ से अपने मुख को ढँककर वह कहती है कि यहाँ घोर तप की सामर्थ्य से कामदेव के बाण समूह का विस्तार करनेवाले, हे आदरणीय किसी का भी स्मरण नहीं होता। मैं भी स्नेह से कही गयी तुम्हें देखती हूँ। पुण्यात्मा तुम्हारी रक्षा करती हूँ। तब भी हे देव, विश्वास नहीं करना चाहिए और वनचरों के लिए दुर्गम भवन बनाना चाहिए। यह कहकर पन्नों के तोरणवाला एक प्रासाद उसने खम्भे के ऊपर बनाया, उसमें 'कुबेर श्री' के पुत्र श्रीपाल' को रख दिया और लाल कम्बल से ढँक दिया।
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