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मुलापश्वहशताजायविचिंतियविम्पियसाफणितणसकेरअणिमय केणियमंडविहावि यथाहहियलिटकारावियन मसिसईकम्मरणिहिय संसिईकाईदियशमन्तश्य सपउजगमन वणितुणवखपाहाणामने आणविसवाएंगणलडध्वहिगस्वाररावा भर हवाह सर्विधेविसराधणधाएगलेसखललापविद्ययुगए अहंतवणराहर पविण श्रासहपुनरणदिवावहिदिषु श्यनिम्मपसणियडजन्मजयवरुदेमिहरत मडजायनाताविसहरूविसहेपियनरिमखयाणेणिय मकडवसधामिण थिमश्रण उर्वणिणुपयाखंसमर्सिदविवादशउतरवरणियहडअहिदिहश्रहिदत्तपाकि हसशायकलनळसाहजिहानेरंतरूपिसिदिवसयमझलशवहिविह्मणुसहसमावास सणशमिलमध्मेलवाहि पडिवसानिमन्चवाहि तातणमाणुशवहछिननधयणामुणवे गिणपतिथलं पध्मएदेउविवधुजदि वणिजसाहसुकातिदिखहाराहाणातिमुनि रामसोमेलहिंदवठणायसातणिमुणविमविघनिर्मठ फणिवखणिवश्मोकलिया
अवलोमविदिपायरयळवणु णिमसुयहोसमविणियूलवणु संसेविठगुणहरयरुचरण विलसाडेतवचरण गुणनिज्ञराहनिहनित्रयह गणणिपणवेणिणसवयहादिकिय २
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यदि कर्म नहीं है, तो तुम्हें धारण करना चाहता है।" तब बुरा सोचनेवाले उस साँप को उसने सुकेत के लिए सौंप दिया। सुकेतु ने अपना सोचा हुआ किया। उससे मनचाहा काम कराया। अशेष कामों का उसे आदेश खम्भे के अग्र शिखर पर उठकर चढ़ता है, उतरता है, चलता है और धरती पर गिरता है। नागदत्त ने दिया गया। जब सब काम सिद्ध हो गये, तो साँप आदेश माँगता है। वणिक् कहता है कि पत्थर का एक खम्भा नाग को इस प्रकार देखा जैसे कोई साधु सन्त ध्यान में लगा हुआ है। लगातार वह दिन-रात बिताता है। लो, लाकर घर के आँगन में स्थापित करो और तुम एक बहुत बड़े बन्दर बन जाओ। वहाँ मजबूत खम्भे से एक विधि का विधान सबको घुमाता है । साँप कहता है - हे मित्र, तुम मुझे छोड़ दो। प्रतिपक्ष के साथ नम्रता जंजीर बाँधकर और उसे अपने गले में डालकर हे सुभट, तुम बिना किसी धूर्तता के चढ़कर और उतरकर से बोलो। तब उसने मान छोड़ दिया और सुकेतु को प्रणाम कर प्रार्थना की कि जहाँ तुमने मनुष्य होकर अपना दिन बिताओ। और उसने कहा कि जब तुम इसे नियमित रूप से करने लगोगे तभी मैं तुम्हें दूसरा भी नाग को बाँध लिया, वहाँ मैं तुम्हारे साहस का क्या वर्णन करूँ! तुम बुद्धि और धन दोनों से बड़े हो, काम दूँगा।
हे वत्स, तुम नागसुर को छोड़ दो।" यह सुनकर छोड़कर डाल दिया। सुकेतु ने साँप को मुक्त कर दिया। घत्ता-तब विषधर हँसकर तुरन्त खम्भा लाकर, बन्दर का रूप बनाकर और अपने को बाँधकर स्थित एक दिन सूर्य का अस्त देखकर, अपने पुत्र को अपना भवन देकर सुकेतु ने गुणधर गुरु के चरणों की सेवा हो गया ।। २८॥
की और तपश्चरण ले लिया। तथा मत्सर से रहित निर्भय सुव्रता आर्या को नमस्कार कर उसकी गहिणी
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