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अापत्रदेवरसिरघणयुण्ठितंमच्छविहउंमहीसलमा तातगाणाईलसदान त्रुहंमतकरीधरकमलसिरि पद्वीरिएडासश्मशुसिरिङगुणमाणिकहताणल खणि पूकिदासम्पांजविनमणि पकरणहातितदिहमणि श्यसणिविग्रहाहरु द्ववणि धरियविवरकवश्युध उतनसकेउमाकिंपितरायना हिमगारखा। एतासए मजंकेरएफणिवासए पडियाशाहियक्रमहजहाँतिमाणिकशाशय
रंपवतचझंखुदखल मघरिणहकरदाणदल माहरहिचारसशनिवडसादखुल सनिणिमुनिदान
एपिणुमाकुमाउतहिदिअलन्धरणि कोर हापनरष्टिना
पावधमहोतणियगसारणम्वरूविसावणि ता
अधिरदमूदुलहिवणि जिदजिह्मपुतसीकर धाण तितिहजिहागालगण वरदविविमुक्कहि दादरहिसिसावियक्किरदरहिानरमाईविहियव एसकिय सटिमसकेपलयाकयन दिलाठरपणोड दपुगालदासपुतणवतेणकोरणमलिनालामा
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एक और जगह बरसनेवाले बादल गड़गड़ाये। वह सुनकर मैं डरकर भागी।" इस पर स्वामी कहता है - "हे सखी, तुम सदय हो। तुम मेरी गृहरूपी कमल की लक्ष्मी हो, तुम्हारे रहते हुए मुझे लक्ष्मी प्राप्त होगी। तुम गुणरूपी माणिक्यों की खदान हो। तुमने यह धर्म किया कि जो मुनि को आहार दिया। वे पत्थर नहीं दिव्यमणि हैं।" यह कहकर वह वणिक् शीघ्र नागभवन पहुँचा। लेकिन शत्रुवैश्य (सुकेतु) ने वह धन ले लिया। सुकेतु बोला-कुछ मत कहो।
पत्ता-हिमकिरण और क्षीर की तरह भास्वर मेरे नागभवन में गिरे हुए अत्यन्त कान्तिवाले माणिज्य मेरे ही होते हैं ॥२५॥
दूसरे ने कहा-"तुम क्षुद्र और दुष्ट हो। यह मेरी पत्नी के दान का फल है। हे चोर, उसका अपहरण मत कर, राजा नाराज होगा।" तब वह कुमति धन लेकर वहाँ गया जहाँ राजा था। धर्म की गति को कौन पा सकता है ? वह राजा और वह बनिया भी अत्यन्त मूर्ख और लोभ से प्रवंचित थे। जैसे-जैसे वह मन में वह धन स्वीकार करता, वैसे-वैसे वह ईंटों का समूह होता जाता। नगरदेवी के द्वारा मुक्त राक्षसों ने अनुचरों को डरवा दिया। राजा भी अपने मन में आशंकित हो गया परन्तु सुकेतु रोमांचित हो उठा। उसने रत्नसमूह दे दिया। दर्प दूर हो गया। बताओ तपवाले से कौन मलिन नहीं होता!
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