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हिरन्यवम्वप्रसाद
इंधनामालवणेतरेसमियशंसहसरावधुिनिणणि विमिविश्वनामुमश्ररप्पिणु अायश
नियपरवाहकारिता जसवमवस्सुवरसारिठ पश्दठरिसिऊवलाचदही चरणमूलसिरि वित्ररथपुत्रककरा पालम्रर्णिदही सहहिरवम्युचारणणि नमश्यावश्गुणगरुखनगुणि गुणभुमाएपहावशद घरवाहिरवासी
रिक्रमा करणचरणसमसिलिंदा सबलबईकामुनि प्रशाक्तीवनोत्तरेगतः
पत्रताडरिकिणिश्वमझायना िरिसिधिटपरखा तवारमा
दिरपवरवणेअक्राइबलुचिरायगडासमन्तादाढविय तीदाधरण
RANA खतहिं पियनघस्थायठायावपिणिपविणाप
गारुड्ठं नसजावविसाजुसुपिहउ सुपुत्रासअप स्तुधिदेणिपुताएपहावश्सपियमदेप्पिए किनबिमाणि
नपश्पजावणु किंतासमयससेविननए हिमपरिमि
टोयसुमहरलासिणिमए तनिक्षणविसासिउत्तवासिणिया या एलजेसनणणदणाणंदिर अदमासदारएमंदिरअपहिसावदाताईकवायशकिपर्दियाण हिविहियाविणोयहिं रखसणावरस्वरमामठ सद्दनकोश्यकामक्ष पाणिदयाहलेणमधुमक्षण
और धान्यमालक वन के भीतर भ्रमण किया। सर्प सरोवर के चिह्नों को देखकर और पूर्वजन्म को जानकर दोनों अपने नगर आये। उन्होंने सुवर्णवर्मा को पुकारा और राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। ऋषिकुलवलय के सेठानी ने विनय और प्रणाम से उन्हें रोक लिया और स्निग्ध भोजन कराया। फिर योग्य आसन देकर चन्द्र श्रीपाल मुनीन्द्र के चरणमूल में चारणमुनि होकर पति (हिरण्यवर्मा) शोभित हैं । गुणी गुणों से महान् उसने प्रभावती से प्रणाम करके पूछा-"तुमने अपने पतियौवन का तिरस्कार क्यों किया? और तारुण्य में वे उन्नति पाते हैं । गुणवती आर्यिका से प्रभावती दीक्षित हुई। उसने करणानुयोग और चरणानुयोग शास्त्रों के तुमने वन का सेवन क्यों किया?" यह सुनकर हित, मित और सुमधुर बोलनेवाली तपस्विनी ने कहा-“यहीं अर्थों को सीखा। कों से विरक्त सभी भव्य पुण्डरीकिणी में अवतीर्ण हुए।
पर सज्जनों के नेत्रों को आनन्द देनेवाले इस तुम्हारे ही घर में, दूसरे जन्म में हे आदरणीये, हम कबूतर थे ___घत्ता-आर्यायुगल से विराजित मुनि नगर के बाहर प्रवर उद्यान में ठहर गये। युगमात्र है दृष्टि जिसकी विनोद करनेवाले, हम दोनों को (कबूतर कबूतरी) क्या तुम नहीं जानती ? रतिषेणा और रतिवर नामवाले, ऐसी आर्या गुणवती विहार करती हुई उस प्रियदत्ता के घर आयी॥९॥
अपने कण्ठ शब्दों से काम को संकेत करनेवाले। जीवदया के लाभ से हम दोनों ने मनुष्य जन्म
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