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मिमित्रमहाररतणिरकरकंत्रयणसारखपामगरलंविहाविउफणिणाखांहजीवाबिल।। विविसमुशियवीपवियाणऽ ककेल्लातरुतलेयासीण किरकमितिकाणाहत छलांचीणन्त्रि शिवजोग्नईगयपिययममिळवलसंधवि कंटएणकरपलमधिविहाहाउरलपणहउँकिय निवडिलामिछाविसदयकिय सहसमा भिडन्त पियएचडावियासिरिणेईमहिलाहिंको पखवणवेहाविन कंचविध्यसागसंपाविठ गठनहबरिणपजलियरूजविवाहमा वसातातिणुतनावहिमिन्नबडं विससहगमावईफणिदहीपरिणिमर्कताणिव नदीबुर जीवशार मिमित्रहोनिममता जामविमुहहेदेडपलोमल पत्रणामललिंगमालकिन खतरेमउलियबमणेअरिकन मंदरूआपविलडसहोसदिहाणनिचळरकादपियसहिए। चकहविगमसुदरुजावदि सुंदरिस्मनिवश्हातावहिलणनखजाउंसविसयों दखहापा धन्ननगेजश्माणमतमयचहि जइरसजलधारणमसिथदितोहरमुच्वमिविरहवियोमा पडिजपिउपसमियमाहें पायलुरिवारपिपखजेहठ अरबियाणहिमेवंतेहउँ वरमहंसरणहदी शचिसिजरि संदपरधिदिहउँनरसिहान्न पकलननाजणणिसमायो बर्द्धपूर्णमायवहिणिमि त्राणधिवारिइसे विद्यासउर्मदरहो वणिकिविसकलनमा गंक्षारणयल्सामप्याण्ड महेविद
उसने कहा-यह हमारा मित्र है । गुणश्रेष्ठ कुबेरकान्त सेठ । इसे गरुड़ मन्त्र याद था। मुझे साँप ने काट खाया चिह्न नहीं देखा, अपनी आँखें बन्द किये हुए विद्याधर ने कहा-मन्दराचल जाकर मैं शीघ्र दिव्यौषधि लेकर था, इसने मुझे जीवित किया। चीनांशुक को धारण किये हुए वे दोनों अशोक वृक्ष के नीचे बैठ गये। मैं इन आता हूँ। तुम प्रिय सखी की रक्षा करना। यह कहकर उसका प्रिय जैसे ही गया, वैसे ही वह सुन्दरी शीघ्र तीखे नाखूनों का क्या करूँ? हे प्रिय, तुम्हारे योग्य पुष्पों को चुनती हूँ। प्रियतमा चली गयी, और झूठ उत्तर बैठ गयी। वह कहती है-मुझे विषवाले साँप ने नहीं काटा है, मुझे तुम धूर्त भुजंग (विट) ने काटा है। यदि की खोज के लिए काँटे से करपल्लव को बेधकर, हा-हा मुझे साँप ने काट खाया, इस प्रकार विष की झूठी कामदेव के मन्त्र से शरीर को अभिमन्त्रित कर दो, यदि रतिरस की जलधारा से सींच दो तो मैं बिरहविष वेदना से अंकित होकर गिर पड़ी। प्रिय ने सैकड़ों दवाइयों का प्रयोग किया परन्तु प्रिया ने अपनी आँखें सिर के समूह से बच सकती हूँ। तब प्रशान्त मोह मेरे प्रिय ने कहा कि जिस प्रकार इन्द्रवारुणी फल पीला होता पर चढ़ा ली। स्त्री से संसार में कौन प्रवंचित नहीं हुआ। पति वियोग और शोक को प्राप्त हुआ। वह तुरन्त है तुम मेरे शरीर को उस प्रकार का समझो। मैं काम के तीरों से कभी विद्ध नहीं होता। मैं नपुंसक हूँ, मैं हाथ जोड़कर वहाँ गया, जहाँ मेरा पति (कुबेरकान्त) बैठा हुआ था।
स्त्रियों से रमण नहीं कर पाता। दूसरे की कुलपुत्री मेरे लिए माता के समान है। फिर तुम मेरी बहन और घत्ता-उसने कहा-हे मित्र, तुम आओ। विष सब अंगों को जला रहा है। मेरी पत्नी को नाग ने काट मित्र हो। खाया है, तुम्हारे मन्त्र से वह निश्चित रूप से जीवित हो जायेगी॥१२॥
यत्ता-इतने में रतिषेण भी मन्दराचल से आ गया। सेठ कुबेरकान्त पत्नी सहित उससे पूछकर आकाश १३
में विहार करते हुए अपने गन्धार नगर आ गया ॥१३॥ मित्र ने मित्र को अपना मन दे दिया। उसने जाकर उस मुग्धा का मुख देखा। मेरे पति ने विष का कोई Jain Education International
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