Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 606
________________ जोमडदिमुवा सोअादेहिनिवसतिया एपरदेसहामापरवहिण्डविमाखनेरखंडव्हिातानहो । धरणी सकिसकरपा वारिलविदेसविख्यमरणु वणिक्यपुमरिजकियउतपिहिविधितुरोर्स किमल नवमारुखलहादाससरिसाफणिदिसनादविदाशवसाचितश्सोमारत्रिपुणुमािसहिहिनि महश्रवसकरावधवा पताइविणतीय तणमसारसमीरण विहादरकरावयलियअंगुकर लियानालिय अमिएकमसहदाणसातारवयरूपला यमशणय किंजारहितेमुक्तिमतन्नतइहहनशकटनामा कामवधरिमडिया यकृमिहकलाश्यडिया कंपियमश्णाहा विद्याधरअगुछ लिकाढण सखविय तेतहोसाविहसेविदकविमा याममविवादिस्मतही संघहमममणियमंदिरदो लडअनसायस्वस्खसिरकदिन मुहएका । वरपिनसजिकिन यकायचडियउणियसमवश्टेधाव याणियदे सापेक्षशणयटासहोलरठ जयपरकश्वणिनिवलजलापिस्तुणेपदवीसहोविन्दविनापर मसखहकलचरमिला नवजावणमयमा चउधणवश्यहेपत मावरणरसंजाम्हि जायवि अप्पाजायहिश्थामाबावसविलंबिमनमुहाडिसकसिवियाइणिहमछरुकावणहिदि रखष्ट उस समय तुमने जो वर मुझे दिया था, हे राजन् ! शान्ति करनेवाला वह वर आप आज मुझे दें। इनको परदेश गिर गयी है, मानो जैसे पति के द्वारा नहीं सिखायी गयी प्रियतमा हो।" तब उसने वह अंगूठी हँसकर उसे दिखायी न भेजें, इसको तलवार से खण्डित न करें।" राजा ने इस पर करुणा की और देश निकाला और मृत्युदण्ड और पुन: उससे माँगी। विद्याधर ने वह अंगूठी उसे दे दी। वह सन्तुष्ट होकर अपने घर गया। उसने अपने छोटे को उठा लिया। राजा ने जो सेठ का कथन मान लिया, उसने मन्त्री पृथुधी को कुपित कर दिया। उपकार भाई वसु को सिखाया, उसने अँगूठी से कुबेरप्रिय बना दिया। वह धर्म को जाननेवाली सत्यवती रानी के एकान्त भी दुष्ट के लिए दोष के समान होता है। नाग को दिया गया दूध विष ही होता है। वह सोचता है कि मरूँगा आसन पर चढ़ गया। वह उसे अपना सगा भाई समझती है, लोगों को वह अकार्य करता हुआ सेठ दिखाई या मारूँगा, सेठ का प्रतिकार अवश्य करूँगा! देता है। किसी दुष्ट ने राजा से निवेदन किया – हे परमेश्वर, तुम्हारी स्त्री से रमण किया है__घत्ता-फिर जब वह हिम शीतल नदी किनारे गया हुआ था वहाँ उसने विद्याधर के हाथ से गिरी हुई पत्ता-नवयौवन-मद से मत्त धनवती के पुत्र ने निश्चय से। किसी दूत को मत भेजो खुद जाकर एक अंगूठी देखी॥१३॥ देखो॥१४॥ १४ सुखदायिनी उसे उसने अपनी अंगुली में पहन लिया। इतने में विद्याधर धरती देखता है । मन्त्री ने पूछा-तुम क्या देखते हो? उसने उत्तर दिया-"मैं यहाँ था। मेरी कामरूप धारण करनेवाली अंगूठी, हे मित्र, यहीं कहीं उस मुग्धा ने उस मायावी वणिक्त्व को प्राप्त उस बालक को सिर पर चूम लिया। दुर्दर्शनीय ईयों से उत्कण्ठित Jain Education International For Private & Personal use only www.jain 587org

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