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मच्छेविरुधचारित्र काली कोमल कंदलगत किंड निस्कऩणुखिपि दत्रण संत हेर्द तहेव युगपदि चरणमूले त युवगण लिहे कुजय वयणावंगालोक्षण उपनिकहापूरक हरसुलोमा तमुरेवहिम सामसो अश्वक थक हरप्पनम्मुलंक्यि करू नरकपुरपस्णिसंखादि ॐ मुणिपडिमा जयपडिवादिनं सन्नमविहे पवपेयहावई मुणिचरित po000000त्रिकीवादी या अगिरिनिडा लमश धित्रणिमिणयरपड लिसमा वय त्रिपथवती सिम राई व एतदेव शनि वणिषणमंजर सोनरुहूमन तलवरा! किं कुरु निसिहि समागय गय वरगामिपि तापासेपुर वणिवर कामिणि साकुंदलसतपरिचय सुंदरिया छत्रा मुणि पडिमा आर्यसंडियनं तदोचलाई नरिदें वंदिनइंञसमपरणे म्हाण्णवदेिं ||| सावयवने वृजिदा विग्छे गुण वइज सवगणणा संघ सब जडवरपाई विमल श्रम चिरुभुमिणा दहो के गेर्दिणि तुइदि सहमी लजलवा दिणि वमारिणि ऋवियर सूरण ऐतिऐतिथियनयर डवारण डमवम्मद सरसं घारी तपविसस्तुविरविरुडारी ताईच विद्यारा वम जमा सहिगहिजालिय जिणधार व लडखड
अरहन्त धर्म का आचरण करनेवाले (हिरण्यवर्मा) को देखकर केले के वृक्ष की तरह कोमल शरीरवाली प्रियदत्ता ने शान्त-दान्त बहुत-से गुणों से गणनीय (मान्य) गुणवती आर्यिका के चरणमूल में तुरन्त संन्यास ले लिया है। जयकुमार के मुख की ओर अपांगलोचन जिसमें ऐसी सुलोचना पुन: कहानी कहती है कि उस नगर में बाहर मरघट में अपने हाथ लम्बे किये हुए यतिवर हिरण्यवर्मा विराजमान थे। प्रतिमायोग के सात दिन पूरा होने पर, मुनि ने सम्बोधित किया। राजा, परिजन और नगर में हलचल मच गयी। मुनिचरित का अनुगमन करनेवाली गिरि की तरह निश्चलमति प्रभावती आर्यिका, रात्रि में नगर के समीप प्रतोलि में, अपने मनरूपी कमल में जिनवर का ध्यान करती हुई स्थित थी। यहीं पर वह शत्रु वणिक ( भवदेव ) जो बाद में बिलाव हुआ, वह मनुष्य होकर नगर का सेवक कोतवाल बना नगरसेठ की गजबर गामिनी स्त्री, रात्रि के समय उसके पास आयी। उस स्वर्णलता से उसने पूछा- 'हे सुन्दरी इतनी देर कहाँ थी ?"
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कोटपालु प्रति वाता
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घत्ता - ( उसने कहा ) मुनि प्रतिमायोग में स्थित थे, उनके चरणों की वन्दना अशेष नगर और हमारे सेठ ने की ।। १७ ।।
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विघ्नों से रहित श्रावक वर्ग, गुणवती और यशोवती आर्यिकाओं के संघ-सब ने यतिवर के पैरों की संस्तुति की। उन्हें हम मरघट में छोड़कर आये हैं। पहले जो मुनिनाथ की गृहिणी थी, बुद्धि और विशुद्ध शील गुण की नदी, व्रतों को धारण करनेवाली आदरणीय वह आते-आते सूर्य के अस्त हो जाने पर नगर के द्वार पर कायोत्सर्ग कर ठहर गयी। उन दोनों ने सेठ के घर में ही कबूतर कबूतरी जन्म में जिनधर्म को जाना था। बिलाव ने उन्हें वन में पाकर खा लिया।
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