Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 600
________________ बकुलुसिदिन जणासचुमतासिङ जणपरमविहिन जसुमपुपरबकरवठाजोलो हकमाएतावियउसोकवएणचितरेतादिदमणिउतायएटाश्वयशमशाहवश्व दावारासपयज्ञरावयविवरम्महवहजिहाहापावेनशविनणणतिहासनिखयोविपिनणा शळयामश्देसचरिखपतिकिटाउ गरविणिनिणयरुजाणनरूपणबिनमणिनवणाणंद यहातहोवयणेवषिवरुवसमिउ मधमेजिणिंदसिहिरमिट दोग किरकरमितताकि नासमिलनमअम मयखनएणसमलविन पिउहाहाअार्ड मच्चविड तसथावरजा तीमतवतग्रहाण वडकयदयउहारिसपंचमहन्वाज्ञाहता कयफणिसरणारसे वहो पायमलेनिणदवहो हसद्धहरकोणातरूनिवणिनिराज म्भतरु महतियाणाहेरियन पश्वर्णमिद्धबउमारि। यह रिसिचिरुसवदेवेविपिएणा हतिणकालकदलपिएण पुर्णत चियज्ञवलल्लनस्कियउ मझारेहोएविसस्कियर जश्यकताञ्जतन मन्ना पश्चगवडदासणेहिनांइतक्युङहातासितलारुमडानसा दियणपणहोसिलङ गुणवायलेसियत कहकहवाजमा शक्ष घत्ता-जिसने जीवकुल की हिंसा की है, जिसने असत्य वचन कहा है। जिसने परधन का अपहरण और पिता के हाथ से अपने को मुक्त कर लिया। त्रस और स्थावर जीवों के प्रति दया करनेवाले मैंने पाँच किया है, और जिसका मन परवधू में अनुरक्त है ॥४॥ महाव्रतों को ग्रहण कर लिया। घत्ता-जिनकी सेवा सुर और नर करते हैं ऐसे जिनदेव के पादमूल में असहा दु:खों से निरन्तर भरपूर, अपने जन्मान्तरों को मैंने सुना ॥५॥ जो लोभ कषाय से अभिभूत है, वह कौन है, जो दुःख से सन्तप्त नहीं हुआ!" मैंने कहा- "हे पिता, मैंने यही व्रत मुनि के चरणों की वन्दना करके ग्रहण किये हैं। ये लोग जिस प्रकार व्रतों से विमुख होकर मुझ (भीम) से मुनिनाथ ने कहा कि तुमने वन में एक जोड़े (सुकान्त और रतिवेगा) को मारा है रात्रि बँधे हुए हैं, हे पिता, उसी प्रकार मैं राग से बँधा हुआ हूँ।" यह सुनकर मेरे द्वारा स्वीकृत अणुव्रतों की पिता में। जब तुम अप्रिय विनाश और कलह के प्रिय भवदेव थे। फिर तुमने उस जोड़े को देखा और बिलाव होकर ने इच्छा को। हम दोनों नगर के उद्यानवर में गये और विश्व के आनन्द करनेवाले मुनि को प्रणाम किया। खा लिया। और जब वे लोग तप तप रहे थे तब तुमने पकड़कर उन्हें आग में डाल दिया। उस समय तुम उनके वचन से वणिग्वर को उपशान्त किया। वह जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट गृहस्थ धर्म का पालन करने लगा। कोतवाल थे। औषधि के गुण से तुम शीघ्र नष्ट हो गये। राजा गुणपाल ने तुम्हें खोजा और किसी प्रकार तुम्हें दरिद्र से क्या ? अच्छा है मैं तप करूँ। प्राप्त मनुष्य जन्म को क्यों नष्ट करूं? मैंने इस प्रकार न्याय से कहा, यमपुरी Jain Education International For Private & Personal use only www.jan581.org

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