Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 586
________________ कालुकुलमंडा पसरियदिडिविवाददसणसंहासनयुपविण्ठया दाणदिपसिंगारहं अपहिवासखेविरमेतई परगयणुहंगेवरतई दबिमघंटार्टकाराला सिसिहरुणा मणजिणाल मोहमहातरुजालकयासद तहिविडिमाजिगसहमणिरुचम्महम्मादाद यारण पुपचेदतिसवासहिचारण अविरतहिनिययजम्मतक रिसिपाकहियगयउकहत्तर वापसवमायापियरचमूह आइतारंपवसिदकामहसुसजायकतिठसासंझसवसंसारमा छगनदास जोसवदेववचिस्वणिवकाइहरयामउसाहनमसयुक्षणामुसिरिमामुपयासिल रिसिसचासहिचारपलासिउ गमागमतवतासिहल तश्यठणाणुविसोलहापणदेविषय जादलमरश्सपही मुक्कडनिमडकविहाणहोमिता गुरुपक्षणकढारतिरकरण सवतस्व समछिन्नई बंधतउपंचमियणहि मयादिसाबलिदिलठाणसहमश्चहियरमणिदरम्य पहा तंबामशविगमाससवणहो मेहछोपविनिविषठ मारुअरहपछजपवाउबलमणे रखडपरिहिउादिणमणविजाइनणसंहिठ थिलनिनाउसत्तंगपमादानेणिवम्मुतदाकर पतिमसुमरश्वहतसहनिबहलो मणहरसुत्रहोदिषावितरहदो अपहिंदिरोगटांगणारमियर घत्ता-कुलमण्डन और प्रसरित दृष्टि विकारवाले इन दोनों का दर्शन, भाषण गुणविनय दान और शृंगार चारण कहा गया। तप के प्रभाव से आकाशगमन सिद्ध है और विशेष रूप से तीसरा अवधिज्ञान मुझे प्राप्त करते हुए समय बीतने लगा।॥७॥ है। पाप-दु:खों का नाश करनेवाले रतिषेण भट्टारक के चरणयुगल को प्रणाम कर मैं मुक्त हुआ। घत्ता-गुरुवचनरूपी तीखे कुठार से मैंने संसाररूपी वृक्ष को छिन्न-भिन्न कर दिया और पाँच बाणों से एक दूसरे दिन क्रीड़ा करते हुए तथा आकाश की गोद में चढ़ते हुए वे दोनों हिलते हुए घण्टों की ध्वनियों बिद्ध करते हुए मैंने काम को दिशाबलि दे दी॥८॥ से निनादित सिद्ध शिखर नाम के जिनालय में पहुँचे। वहाँ पर मोहजालरूपी तरुजाल के लिए हुताशन के समान जिनेश्वर की प्रतिमा को पूजकर, फिर कामदेव के व्यामोह का विदारण करनेवाले सर्वोषधि चारण यह सुनकर पति और पत्नी की सुमति बढ़ गयी और वे अपने घर गये। वायुरथ विद्याधर मेघशिखर मुनि की वन्दना कर उन्होंने अपने जन्मान्तर पूछे । मुनि ने उन्हें बीती हुई कहानी बता दी। वणिक्भव में जो देखकर विरक्त हो गया और उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। उसका पुत्र मनोरथ गद्दी पर बैठा। आदित्यगति विद्याधर तुम्हारे माता-पिता थे (सुकान्त के अशोक और जिनदत्ता, रतिवेगा के श्रीदत्त और विमल श्री), इस समय भी जैनत्व को प्राप्त हुआ। उसके सप्तांग प्रकारवाले राज्य में हिरण्यवर्मा स्थापित हो गया। अपनी पुत्री रतिप्रभा शुभकर्मवाले तुम लोगों के वे ही पुन: माता-पिता हुए हैं। कितना कहा जाये, भवसंसार का अन्त नहीं है। उसने सुख के समूह मनोहर पुत्र चित्ररथ के लिए दे दी। एक दूसरे दिन उन्होंने आकाश के प्रांगण में रमण वह बेचारा भवदेव का जीव वणिकवर, मैं यहाँ उत्पन्न हुआ। पहला नाम श्रीवर्मा प्रकाशित हुआ फिर सर्वोषधि किया Jain Education International For Private & Personal use only ___www.jas567..

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