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परिसिगदावरथियविणयकसण मुण्विसदहनविकलेविष्णु। निनाथाहारदान
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क्रिसेणराजाक Vाउन एहानियकलापमा महिंगामापुणपिसिनिारकुता
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मिरुदत्रुधारिणीस
नुदेषिनिदानबंधु
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इतने में बन-मार्ग से दो चारण मुनि वहाँ प्रविष्ट हुए। शरण में आये हुए उन दोनों को शक्तिषेण ने देखा। उस महायशवाले ने 'ठहरिए' कहा। विनयरूपी अंकुश से वे दोनों महामुनिवर ठहर गये। पुण्य लेने के लिए उसने मुनिश्रेष्ठों के लिए योग्य नानाविध आहार भावपूर्वक दिया। देवों ने आकाशतल में नगाड़े बजाये तथा पाँच आश्चर्य प्रकट किये।
पत्ता-मणियों को लो, पुण्य को देखो, जिसका मुखरूपी पूर्णचन्द्र खिला हुआ है और जो तुम्हारे लिए प्रणय उत्पन्न करनेवाला है ऐसा मेरुदत्त घर आ गया है ।।१६॥
वहाँ उस मेरुदत्त ने उसका दान देखकर धारणी के साथ यह निदान बाँधा कि अगले जन्म में दुःस्थित लोगों का कल्याणमित्र यह मेरा पुत्र हो। तब वहाँ रात्रि में चोर की तरह धरती पर चलता हुआ एक लँगड़ा आया। वणिक ने अपने मन्त्रीवर्ग से पूछा-बताओ कि इसका गतिप्रसार नष्ट क्यों हुआ?" शकुनि (शकुनशास्त्र जाननेवाला) ने कहा- "इसे अपशकुन हुआ था इसलिए इस जन्म में इसका पैर टूट गया।" बृहस्पति ने कहा-सुख का नाश करनेवाले क्रूरग्रहों ने इसे लँगड़ा किया है। धन्वंतरि कहता है कि यह प्रकृति-दोष है। कफ से जड़त्व होता है और पित्त से शुष्कता आती है,
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