Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 559
________________ अकंपणराजाम होरणरंगवीरु श्यदादादोसपरंपराशंजामविनचविध असमंत्रासावयास राए तंदवपमहाअनुसरण किंदडाकुसबस्यहाण किंमारण प्रायनवीनतीक किसणुतणुकिलय सणिणेविपश्मणीसाहाहपडि रणका बजामिकासिराउ पवासियएताएमङ्गसाजिताउजउमड़वण दाहिणुवाददंडुजसोचकनबहादंडुनवारश्वाष्पसगामय D काले मललियगिडबड तमालाचत्वाविलगडे गेसति जाज पवउसंघरसुध्दंडवि सोसशखंडविजोनप्पणापमहज शाश्मकहवितणपहविउमति गठमाधासनिषपङहसतिणावश्मयपपिछसमाए जनवि जनविरितिमिरला मळूवरविलिपिनुपर्दसणसम्हालमाणुमुसहगणहसासदास गुणवंतरमशकोसरहाहाकरालालगमश्चगड़पुनोकिउहापसाडुजंकपर्दिविरळचाहतम शनिरिटरअंगु नठकिमाइखलसम्मापासंगुप्ताजनकपणहरिसियसुधामकरुवंसनामवंसा शिम घरनिदियमनित्रप्याहिपण इजादचिलायसपाहियण श्रणबरयानविदाक्षिणवरपपणा पद्धजिमनखरसपण अन्नहिदित्रापदिलजण अाउमिनिमसमरनजपणाघझा उहगा प्रकवितणावरविलिसबिनहाविउदाणसाइजकमा करवंसनादवसा यह मुझ द्रोही की दोष-परम्परा है कि जिससे मैं आज भी घर नहीं छोड़ता। हे देव, अब मैं तुम्हारी शरण राजा तुम्हें पिता के समान मानता है और जो जय-विजय दोनों शत्रुरूपी अन्धकार के लिए सूर्य के समान में आया हूँ, क्या इसका दण्ड सर्वस्व अपहरण है ? क्या मृत्यु, बताइए क्या दण्ड है?" यह सुनकर राजा हैं। वह (भरत) यह कहता है - वे मेरे दूसरे भुजदण्ड हैं, तुम्हारे व्यक्तित्व को बहुत सम्मान देता है। दोषी भरत उत्तर देता है-“हे काशीराज, मैं कहता हूँ कि पिता के-ऋषभनाथ के संन्यास ले लेने पर वही मेरे पर क्रुद्ध होता है, गुणी का आदर करता है। भरत की लीला को कौन धारण कर सकता है ! तुमने पुत्र का पिता हैं। जयकुमार मेरा दायाँ बाहुदण्ड है। वह जो है वह न चक्र है और न वज्रदण्ड है। जिसमें झपटते अच्छा दर्पनाश किया ? लेकिन जो कन्या (अक्षयमाला) देकर उससे प्रेम जताया है वह मेरे शरीर को अत्यन्त हुए गीधों के द्वारा आँतों की माला खायी जा रही है ऐसे युद्ध के समय जो उपकार करता है। जला रहा है। दुष्ट के साथ सम्मान और संग नहीं करना चाहिए। इस पर कुरुवंश और नाथवंश के सुन्दर घत्ता-जो बल, घमण्ड और तीव्र क्रोध से जनपद को पीड़ित करता है और जो खोटे मार्ग से जाता सुधाम जय और अकम्पन प्रसन्न हो गये। तब गृहिणी मन्त्री और अपना हित करनेवाले दुर्जेय चिलात और है ऐसे पुत्र को मैं खण्डित और दण्डित करता हूँ"॥३॥ सर्प का अहित करनेवाले, जिनवर के चरणों में अनवरत प्रणाम करनेवाले, राजा की सम्पति का भोग करनेवाले एवं जय से आनन्दित जयकुमार ने एक दूसरे दिन अपने ससुर से पूछावह कहकर भरत ने मन्त्री को भेज दिया। वह गया। वह अपने स्वामी से शान्ति घोषित करता है कि Jain Education Interation For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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