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विद्यादानुक रिझहुकरण।।
मन्त्र सोडालउ मेहणद्वेणसी इदादा जन अंजं सुमि ससस तंतमे इविहंसाचा उ सकिउ विसहडरिन हेमर कसरूवमुर्व केवि इसरिज सुण मिरवलरादिवश से गुरुला क मुऍप लग्नगामि समरे सोहारदि दविज्ञा दरवारदि महण पहरेहिपरजि रहयललक व कणि
उ सोणा संत्रण सरदंवि अनि दाणवारिपाणियम
रकण किंकिणि काला करसिकारसि धरणाय आयलय व दाल साजण
मतवाला महागज तीर छोड़ा, मेघप्रभ ने दंष्ट्राओंवाला सिंह तीर छोड़ा। इस प्रकार, सुनमि जो-जो तीर छोड़ता
है उस उस तीर को मेघप्रभ ध्वस्त कर देता है।
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गजों और आठों चन्द्रकुमार विद्याधरों के होते हुए भी सुनमीश्वर के भग्न होने पर, मेघप्रभ के अस्त्रों
धत्ता- विद्याधर राजा सुनमि शत्रु के तीरों को सह नहीं सका और गरियाल बैल की तरह अपना मुँह से पराजित और भागता हुआ वह देवों से भी लज्जित नहीं हुआ। जिसने मदरूपी जल से मधुकर कुल को टेढ़ा करके संग्रामभार को छोड़कर हट गया ।। ३१ ।
सन्तुष्ट किया है, जिसका ऊँचा कुम्भस्थल आकाश को छूता है, जिसमें ध्वनि करते हुए स्वर्ण घण्टियों का कोलाहल हो रहा है, जो सूँड के सीत्कारों से धरणीतल को सींच रहा है, जिसके दोनों उज्ज्वल दाँत लौहश्रृंखलाओं से बँधे हुए हैं,
जडकरांच कार्ति मेघेश्वर
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