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अर्का चिमेघे वरादयः राजा स्वयंवरा मंडफ्त लेसुलोचना चाव लोकिन
सादिसदंती साइसदासेंरकिांती चाश्य इलमहिंदर हियं तहिं रामकुमारपरे हियजे नहिं जो वसुंदरिकंतु प्रदाव विपरवश्मण होला वा तदेव किचियलय कूपिका बलि वलिसमान वज्ञाज्ञवरुका विजिहजिह से हरि अण्ण
दावृश तिति निव तणसद्ध तप्पुतायर को विपी ससइस दिदिनहु अंगन का विद्युदिश्व मंड़ कंठाहरणकावि संजायश प्ठदपण कोपिलोज को विमिस इण्टियमहागड शालिन विरलवेमय किमठमणिग्ग्रड विद विरय मिण्य हक ठग्न कोदि ।
आभूषणों से शोभित होती हुई वह अपने हजारों भाइयों से रक्षित थी। महेन्द्र सारथि ने उस और अपने घोड़े चलाये जहाँ राजकुमार बैठे हुए थे। कंचुकी बताता है और सुन्दरी/ कुमारी देखती जाती है। एक भी राजा उसके मन को अच्छा नहीं लगता।
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धत्ता- वहाँ अर्ककीर्ति प्रलय के सूर्य समान और बलि भुजबल के समान था। वज्रायुध वज्र के समान दिखाई दिया। परन्तु उसे कोई भी राणा अच्छा नहीं लगता ॥ १८ ॥
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जहाँ-जहाँ वह सुन्दरी अपने को दिखाती वहाँ-वहाँ राजपुत्रों के शरीरों को सन्तप्त कर देती। कोई. निश्वास लेता, कोई लम्बी साँस छोड़ता, कोई अपने आपको बार-बार अलंकृत करता, कोई कंठाभरण को ठीक करता। कोई स्वयं को दर्पण में देखता। कोई अपने अभग्न नखों को देखता कि जो अभी इसके स्तनों को नहीं लगे हैं, पूर्वभव में मैंने अपने मन का निग्रह नहीं किया, मैं इसके कण्ठग्रह को किस प्रकार पा सकता हूँ !
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