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समिछश्तहेयहरनकाकासविलग्नमुकाममहागडा काखवित्रादादिरहमाजरुकारविमरेखननर बम्मदंसरुमपिडिटकाचिविलंघल्लाकणविनियलझहदिमजलाधना करमोडहाडन सिरचिकर अनमतसिंगारहिं अहिलसश्वासश्सासश्मरू महाश्कामबिधारहि १० तरुणिक्य पुजायविजाचार मणारियापविसरगिरिधार मुणुरहवरूसजाउतनदासणिजमानरवाक्षेत्र हमुकश्यतागावापरणाश्कंशषिराणिमहासण्डकरलवाङकासलवण्डासिंध लबाङमालनपाककृपाववरगुजरखण्डजालघरवारवशण्डकसायकोगनगर, गहरामपडराबडामकलिंगह एडवास्यारयाडरछेरुण्यचस्वलायर्दिबुकवरूासामार ङसम्पडणावरुवसाहेनग्न ससिपावरुखणहत्तखरावळारह विसवारिसमाज लधारहिं निवदिविण्यपणपनियमिवानुवसरणनिझिाला गमिठपघण्यासणिणाए महसजहकारिठग मश्राममविपियसहिवमण्झमहापरियाणिक्षणयणशाधनाति हजाळताएसरलालपाय अठानिमवजयगारम सिहरामरामतहावितरित वमनवम्मविद्याला
या जिहजिदकासापश्यालाइ तिहतिहरहिसंदणुढाञ्ठ परवरिंदणीससपमापविलव सणेहसंबंधंझावि सशसकंपावियागेर वालावसपरिमगलिदाननए जमहालविकालातूर
२च्य
कोई उसके अधरों के अग्रभाग की इच्छा करता है और किसी के लिए कामरूपी महाग्रह लग जाता है। किसी सोमप्रभ का पुत्र यह सेनापति है जो कुरुकुल के आकाश में चन्द्रमा की तरह उदित हुआ है। अवरुद्ध कर के लिए विरह महाज्वर आ गया। किसी के हृदय में कामदेव का तीर चुभ गया। कोई विह्वलांग होकर मूर्च्छित लिया है धरती और आकाश के अन्तरों को जिन्होंने ऐसे विषधरों के समान बरसती हुई धाराओं के द्वारा हो गया और किसी ने अपनी लज्जा के लिए पानी दे दिया।
इसने दिग्विजय में अनेक राजाओं को जीता है। युद्ध में म्लेच्छ और अतुच्छ वंश के राजाओं को पराजित घत्ता-हाथ मोड़ता है, सिर के बाल खोलता है। उमड़ रहा है शृंगार जिनमें ऐसे कामविकारों से वह किया है। जब वह नवधन के घोष के समान गरजा तो राजा (सोमप्रभ) ने उसका नाम मेघेश्वर रखा इच्छा करता है, हँसता है, मधुर बोलता है और भग्न होता है ॥१९॥
दिया।" इस प्रकार प्रिय सखी के इन वचनों को सुनकर उस मुग्धा ने अपने नेत्र प्रेषित किये। २०
घत्ता-उस सुलोचना ने जय करनेवाले अपने पति को इस रूप में देखा कि उसके रोम-रोम में मर्म सुमेरु पर्वत की तरह गम्भीर सारथि ने युवती का मुख देखकर और मन जानकर फिर से रथ उस और को छेदनेवाला कामविकार हो गया॥२०॥ चलाया जहाँ राजा जयकुमार बैठा हुआ था। वह गजगामिनी उसे देखती हुई पूछती है। कंचुकी कहती है
२१ "हे महासती सुनिए, यह केरलपति है, यह सिंहलपति है, यह मालवपति है, यह कोंकणपति हैं, यह बर्बरपति जैसे-जैसे कन्या ने पति को देखा वैसे-वैसे सारथि ने रथ आगे बढ़ाया। अशेष राजाओं को छोड़कर है। यह गुर्जरपति है, यह जालन्धर का ईश है, यह वज्जरपति है, ये कम्भोज-कोंग और गंगा के राजा हैं, तथा पूर्वजन्म के स्नेह-सम्बन्ध से जाकर, सत्काम से प्रकम्पित है गति और गात्र जिसका, तथा लज्जा से यह कलिंग का राजा है। यह कश्मीर का राजा है, यह टक्केश्वर है। यह दूसरा तुम्हारा वर है, इसे देखो, जिसके नेत्र मुकुलित हो गये हैं, ऐसी उसने जयकुमार के लक्ष्मी की क्रीड़ा के
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