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कारख़ासनव्यविशयलिदलमहपदकेसराख मुखरहसावलिरबबलमणिसमरसायमय वजूमात्त्विकत
विदसत्वादानु विदिशावरणपत यात्रे॥
रंदविडासघिद्यापिठचरणारविद्धयबजलश्यधरणासरेण विजयुपवजयतणतणा संबविवनपराइयहिंधारहिंजयतवरााहितमलसुधाङ्कपकिवण संक्षिणमहावानि वणमाससजावावरश्याकरण पाटणमहापादहिवणाधणदेवानवश्वहिवण सका। वण्डरयपत्रपण निम्मुक्कावावहानपण दसरायसुचहावदससमाजश्यावहा तपासमडेग़याई यकुजबिहरहरिसिवजनाहि परिगणश्सदहालसणादिवती महिहि उश्त ज्ञानवसइकहिामनिरासण सासावपघणपिनटवणे सुणावासपएसयाद सणविसहियरुधिमयसारूसालनयमअश्यषड्यासानततरुथिरनाणाननन सतिगत २४
बाद में राज्य सौंपकर ॥३॥
कर लिया। लेकिन मुनि वज्रनाभि अकेले ही भ्रमण करते थे वे अपने शरीर पर चलते हुए सों को नहीं गिनते।
घत्ता-धरती पर घूमते हैं, शरीर को दण्डित करते हैं, और कहीं भी आश्रयहीन प्रदेश में रहते हैं। आश्रय प्रदेशों से शून्य एक भयानक मरघट में वे स्थित हो गये ॥४॥
जिसकी अंगुलियाँ ही दल हैं, नखों की प्रभा केशर है, जो सुरवररूपी हंसावली के शब्द से शब्दायमान है। मुनीन्द्ररूपी भ्रमरों से जिसका मकरन्द पिया जा रहा है, ऐसे पिता के चरणरूपी कमल की सेवा में आ पहुँचा। धरणीश्वर विजय और वैजयन्त ने भी प्रव्रज्या ले ली। संवेग और विवेक को प्राप्त धीर जयन्त बरादि ने भी तप ग्रहण कर लिया। राजा होते हुए बाहु-महाबाहु ने, समस्त जीवों के साथ कृपा करनेवाले पीठ- महापीठ राजाओं ने, राजघर के अधिपति धनदेव ने भी जो सतजीव, प्रभु की रज में नत और विविध रलसमूह को त्यागनेवाला था। (इस प्रकार) दसों राजाओं और एक हजार (दस सौ) पुत्रों ने उनके साथ मुनिपद ग्रहण
दर्शन विशुद्धि, गुरुओं की विनय से श्रेष्ठ (विनय सम्पन्नता), शीलव्रतों में अनतिचार (शीलव्रत), निरन्तर स्थिर ज्ञान का उपयोग करते रहना (अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग); अपनी शक्ति के अनुसार तप (शक्तित: तप)
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