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वजनातिक बि
जसा सकिदिदिएका त्रिसमा गयहि ला सिडकिंतु मोहि उगडिं किंहिन वडिलह दिय दाहि जहिरंजिनमिनारीर हि बड़े देवापाड मिहिका किरवेोहि लाड श्य से वो हिउलोयं तिपदिं सावज्ञ से एक संति पहिँ सिंगार सा रखडवमरहू पविणादि
बंधविण्यप वस खणखणभिरका वपुकियन निळेकर णनिय दिय जियन उष्पाप उता यही धम्म वक्त्रमा लगरयण चक्क ताण्य परजिन मोहक पुत्र
विणिनिनुवस्व नायहा निहिसंहिज समवसरण का हो विवविसरूमसरण ताय होईदाधिकरी त्रावणवदेव ता धमावरच वहि सुनककडा णि चक्कवहि॥ छत्रा सिरिमइषि सहदाणि डाउत ववियप्यविपत्रिदंत हो। निमन्त्रहो।प।
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एक दिन शीघ्र आये हुए लौकान्तिक देवों ने उस (वज्रसेन) से कहा कि तुम मोहित क्यों हो? क्या तुम्हारी हितबुद्धि चली गयी, जो तुम नारी में रत रहनेवाले, इन्द्रियरूपी अश्वों के द्वारा यहाँ अनुरक्त हो! हे देवदेव, जहाँ तुम त्रिलोकनाथ हो वहाँ किसी दूसरे के लिए बोधिलाभ क्या होगा? शान्ति करनेवाले लौकान्तिक देवों ने इस प्रकार उस वज्रसेन को सम्बोधित किया। तब वज्रनाभि के लिए शृंगारभार वैभव के अहंकार का प्रतीक राजपट्ट बाँधकर उसने आम्रवन में एक क्षण में संन्यास ले लिया।
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वडा सेती थ करिकूड केव लज्ञान उत्पत्ति।
तीर्थंकर ने अपने हित पर विजय प्राप्त कर ली। पिता को धर्मचक्र उत्पन्न हुआ और पुत्र को शस्त्रशाला में चक्ररत्न पिता ने मोहचक्र को जीता, पुत्र ने भी शत्रुचक्र को जीत लिया। पिता की निधि समवसरण में स्थित थी, पुत्र के भी नव-नव निधियाँ शरण में आयीं। पिता की इन्द्र सेवा करते हैं, पुत्र के भी गणबद्ध देव अनुचर हैं। पिता धर्मश्रेष्ठ के चक्रवर्ती हुए, पुत्र छह खण्ड धरती का चक्रवर्ती राजा हुआ।
घत्ता - फिर शुभदात्री श्री और धरती को पुराने तिनके के समान समझकर अपने पुत्र वज्रदन्त को
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