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मठमधुलिममंदारदाम पवियाररहिमसपुरमकाम खेनाननखेनंतरह्मजंतिउतरवउद्धिमताप जलति रिसइतिहाससहसदिसति तनियर्दिजिपरकहनाससति सहाससमुदायमाजियति ज गाडिशससवितनियतिचिन नाईददा खयरिंददो लमासयधिदो पुहईसादानसुरक्षा नस्सरेसरहा सुद्धजगेश्रमिदहो । गगवतवनणारुदधरणासणारयमिहेसाण सणिसरस अजवाहाकणसनियाणदासण जानमिवयरिङकमधम्मलेसण हामहाचलर पसमासुमकियठ सहाबुदागवडप्पणसंचिया तहिमरविइसाणलनियरासरुजाताले काठश्रदयविषविज्ञघुकमारा स्वरणिनामविवामिनकमि सिरिहासहासीयकर बियणमिम युपसुविहि विडिजिणसासणाडा असुमुगविहह उसालहमसग्निडाएवजय नाहाहाकणमचिमु पढिखलिमजमकरपतववरणसंपाषु अहिलहिचहमिडहाअहन्त्रिकका युणसहह ग्रहगतिकायम गहनश्याधणसिराणिहयणयजति मामणनिमामिणाविहण वणिति जायाचपसहवायुद्धानेहम्म सिरिसरिससामतिणीलालयदहरमा सिरिममदासस्सर मुअणुविकसनारिणविसांपडपहावर्दडारि कसनुणेमरविसंस्लपडिसक संसारस सरजगजाउहपाधणदेउवठधविश्णुङ्गअग्रहमिड सबलळसरयझेस कमियांचंडाला
वामसजडारवडवणानामरक्की
उनके मुकुटों के अग्रभाग पर मन्दारमाला पड़ी हुई थी। काम से रहित सम्पूर्णकाम थे। वे एक क्षेत्र से दूसरे होकर मैं वनजंघ राजा हुआ। फिर कुरुभूमि का मनुष्य हुआ, फिर मैं कृतविकल्प दूसरे स्वर्ग में सुभाषी श्रीधर क्षेत्र नहीं जाते। वे उत्तर वैक्रियिक शरीर ग्रहण नहीं करते। तैंतीस हजार वर्षों में वे भोजन ग्रहण करते हैं देव हुआ, फिर विधिपूर्वक जिनशासन का आनन्द करनेवाला सुविधि, फिर प्राणों का त्याग कर मैं सोलहवें और इतने ही पक्षों में साँस लेते हैं। तैतीस समुद्र-पर्यन्त जीवित रहते हैं। वे विश्वरूपी नाड़ी को देखते हैं। स्वर्ग में अहमेन्द्र हुआ। फिर मैंने वज्रनाभि होकर, यमकरण को नष्ट करनेवाला सम्पूर्ण तपश्चरण स्वीकार
घत्ता-जग में जो सुख अहमेन्द्र को है वह काम से मन्द नागेन्द्र, खगेन्द्र, पृथ्वीश्वर और देवेन्द्र को किया। फिर सर्वार्थसिद्धि में पापों की वेदना का हरण करनेवाला अहमेन्द्र हुआ। हे भद्र, फिर मैं यहाँ तीर्थंकर प्राप्त नहीं है ॥७॥
हुआ। वणिक् कन्या धनश्री, जो नय की युक्ति को समाप्त करनेवाली थी, निर्नामिका नाम की अत्यन्त गरीब
लड़की हुई। फिर वह सुभग बद्धस्नेह ललितांग देव की लक्ष्मी के समान पली हुई। फिर मरकर कुरुभूमि ऋषभेश्वर कहते हैं- "हे गर्वरहित, भव्यत्व में आरूढ़, धरणीश भरत, सुनो-जयवर्मा होकर, अपने में श्रीमती नाम से राजा की रानी हुई। फिर स्वयंप्रभ देव, फिर राक्षसों का शत्रु केशव, फिर मरकर प्रतीन्द्र निदान के दोष से थोड़ा-सा धर्म करने से विद्याधरेन्द्र हुआ। फिर महाबल होकर मैंने संन्यास किया। और हुआ। इस प्रकार जीव अकेला संसार में परिभ्रमण करता रहता है। धनदेव भी व्रत धारण कर सर्वार्थसिद्धि स्वयंबुद्धि से बहुत से पुण संचित किया। वहाँ मरकर मैं ईशान स्वर्ग में ललितांग देव हुआ। वहाँ से अवतरित में अहमेन्द्र हुआ, मानो शरोधों में चन्द्रमा उगा हो।
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