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तिन्निगुण घ्या चढू सिरका द्य कय वजियमस!! छूता जेणा सचिव मिरो हिजड इंशंदे) दिसमरसे सुप थक्क तोमाणवियदो घर तर जो अानंदंडे विसकई । दस पुन सामाजे उपासङ, सवि ऋविरमणुअल इस वासरेणारिसंगपरिवजण स्वरुचालसमा इविवमंगलारु गलिन पाउणकाविमा अणुमा गिद्दहउ नतेपपडिवपठे सुत्रनपरकिर केएपनि दित्यरं तय संधारयमरण ऋणु करे विपन्नु यदत्रण माथव मणिमनदि, सोलायाराल्लवि जिपतउतिबुवेरम्पि
केसर, तहिंजेतासुपडिमा सत्र दाविड्वा से मुसिरि साउस्दा उद्धरणं वपानस वरदन अवरसेवा जियुगश संतमाल मुणिवरचितंगय एवन्नारि विचारु विमाणसं ते जेजायाम समाया है। घता किंससिरारखो मरु पांगूह कडित्तिणं धित्त्रय कागणि च अवगुण गणगणइ छप्पन सुरगुरु बुइ सिरमणि ॥१॥ हो। श्टय महापुराणे तिसडिमहा ।।
रिसगुणालंकारे। महाकप्यर्यंत विरश्या महारुन रहाणुमसिए महा कडे। तो ना सिरि २४१
तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ग्रहण किये और मदों को छोड़ दिया।
धत्ता- जो अपने चित्त का निरोध कर लेता है, उसकी इन्द्रियाँ विषय रस में नहीं लगतीं। तप तो उस मनुष्य के घर में ही हैं जो अपने को दण्डित कर सकता है ।। १७ ।।
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दर्शन- व्रत- सामायिक प्रोषधोपवास, लोगों के दोषों से अपने चित्त का विरमण। दिन में स्त्री के साथ सहवास का त्याग, ब्रह्मचर्य और आरम्भ का परित्याग। दो प्रकार के परिग्रह भार की उसने उपेक्षा की। और अपने मन में उसने किसी भी प्रकार के पाप का अनुमोदन नहीं किया। निर्दिष्ट (सोद्देश्य) आहार को उसने ग्रहण नहीं किया। दूसरे के लिए बनाया गया और किसी के द्वारा दिया गया भोजन स्वीकार किया। अन्त में संन्यासपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर अच्युत स्वर्ग में इन्द्रत्व को उसने स्वीकार कर लिया। अपने पिता के वियोग में धरती छोड़कर शीलाचार के भार को उठाकर जिनवर का तीव्रतम तप तपकर केशव उसी स्वर्ग में जन्म
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दीक्षाग्रदराज
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लेकर प्रतीन्द्रपद को प्राप्त हुआ। दोनों ही बाईस हजार वर्ष आयुवाले ऐसे थे मानो इन्द्रायुध करनेवाले नवपावस हो। वरदत्त, वरसेन, चित्रांगद और कामविजेता प्रशान्तवदन से चारों ही मुनिवर समान चार विमानों के भीतर उत्पन्न हुए।
धत्ता- क्या भारत को आलोकित करनेवाला चन्द्रमा है ? नहीं, आकाश-कटितल पर कागणी मणि रख दिया गया है। देवों का गुरु, बुधों में शिरोमणि अच्युतेन्द्र के गुणसमूह गिनता है ।। १८ ।।
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंवाले इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत इस काव्य का भोगभूमि श्रीधर स्वयंप्रभा - सुविध-केशव-इन्द्रप्रतीन्द्र- जन्म वर्णन नाम का छब्बीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ।। २६ ।
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