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हवहवरणजलनुसरणंगनाथामिक्षादिहिदिडिमण पावसम्मणिहामवराया।कहहिमयाण मयनिम्म्हण कहितमतिमहाराजायाशकहरुलडाखविपि
सिरिहकदेने ऊयामहो गयससिष्णसहसमहामहो असहविद्धरसंतसजो
मरकिसतमति यो निचतमंधीनिवनिगोमहो सुपवायविवरणहसियमर
मंत्रावरुसंवोध निवडिभरण्डजाससमझताणमुपतिसिरिवरूगउतनहे पार
पाथेगवा उपरएनिसपटजन्तः पश्सपियुतसतिमिरुकविवरु तपावि माद सुरवहअहोबासयममुणझिमहावल साम स्टारराउजयनिमल खत्रीसमजलयारि सामिसाल हरिसकरिकसरिसडंडगिहारनिनाए अतिलिविनिपावर विवाएं गुरुणाजिणक्मणम्मिणिमत्त सारकपरंपरान्होपनजावक्ष्यादाणपरिवत सुक्षु पाएकनिहितमादिमाविमडदिययमवासराउसनियुपरमणमायना धम्मुअहिंसर सहदहि मारकम्नुनि थुबियाणहिजाडोवळतिहारदिशामुर्णिणिमुकमाङसम्माणादाशयहां जिततरणा विदंगणकरूणी परतणमुणिमाजिणिदणलाण दवसतिगाहमा समादासरहिट जिणि २४ा
मैं तुम्हारे चरणयुगल की शरण गया था।
सिंह । सुरदुन्दुभि का गम्भीर निनाद जिसमें है ऐसे विवाद के द्वारा तुम तीनों को जीतकर, गुरु के द्वारा जिनपत्ता-मिथ्यादृष्टि, अत्यन्त दुष्टमन, पापकर्मा, धर्महीन और बेचारे वे हमारे मन्त्री कहाँ उत्पन्न हुए. हे वचनों में नियुक्त मैं सुख की परम्परा को प्राप्त हुआ हूँ। जीवदया और संयम से रहित तुम लोग पाप के कारण कामदेव के मद का नाश करनेवाले कृपया बताइए?" ॥११॥
यहाँ उत्पन्न हुए हो। दुर्नयों से अपने को मत भटकाओ, वीतराग जिन-परमात्मा का नाम लो।
घत्ता-अहिंसाधर्म की श्रद्धा करो। निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग को जानो तथा जिह्वोपस्थ भूख से रहित और मोह आदरणीय बह बताते हैं-"वे दोनों सम्भिन्नमति और सहस्रमति खोटे स्थानवाले भयंकर, असह्य कष्टों से मुक्त मुनि का सम्मान करो"॥१२॥ की परम्परा से युक्त नित्य अन्धकारवाले नित्य-निगोद में गये हैं। शून्यबाद के विवरण से दूषितमति शतमति दूसरे नरक में गया।" यह सुनकर श्रीधर वहाँ गया, जहाँ नरक में वह था। अन्धकारमय उस कुविवर में प्रवेश उसने प्रभा से सूर्य को और गति-भंगिमा से हथिनी को जीतनेवाले स्वामी को माना और कहा-हे कर अपने विमान में बैठे हुए श्रीधरदेव ने कहा- "हे महाबल स्वयंमति सुनो, मैं वही यश से पवित्र विद्याधर अनिन्द्य, तुम्हारी जय हो ! शीघ्र ही उसने हमेशा दोष से रहित जिनेन्द्र के सिद्धान्त को दृढ़ता के साथ स्वीकार राजा हूँ जिसने बहुत समय तक अलकापुरी का भोग किया। तुम्हारा स्वामी श्रेष्ठ और शत्रुरूपी हाथी के लिए कर लिया।
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