________________
यए होगविणामणिमामिला अहिहरिणसिल्लशिलानिलय दिगिरिवरचंवरसिलए पसासुपास सुनधम्मुधिरुकिंवडमचविसाविषम दिविजानिउठेमाणियरमदहदहडिदाखिसायरस्म
शाचताजपणालालिमराधाश्करेविसंदरिकलिमलवानाबानासदेवललिगमई गुरुमसप्पिो पनिदाउवाचंचलसरुणहरिपालायगडएकपससिर्विवजपण अवरुविकहविवष्टापिलर विरदाणलससियचंदणे बाजमातरेचिनरसंहारमि अहिपाणुणिसुपिचरझरमि हटेयुक्तिनाव यलिमम्मणा वसलतवसरवश्या लीलाउहरिदावसंघरदा मईयविनचरिणामघरहो दीव
| मिजदुरुषंकियए मेरुहविदहनवासिषय सीमासरदक्षिण ब्रह्मणलालवेक्ष
यलपवस वकावरदेससुबकपटक नामपससामावरणदगि पतिवानीकपना
तहिपकअनिदानापुरिसहरिअममममंतिसरमणाता हासबहामनामगधगतहसउपहसिठपहसियवययाता
सवारुविमसिठसिलपलय स्हतनिनिधिकचडपति णु णिसूर्णतिपदतिगर्मतिदिए तेवविवित्सविचिलममा छलजाहनवविवायरय एकहिंदिपारायंसहसयामश्सा २४
तूने निामिका नाम से होकर साँप, हरिण, भील और भोलनियों के घरस्वरूप अम्बरतिलक पर्वत में उन्हें याद आ रहा है, उसका अभिज्ञान सुनो, मैं तुम्हें बताता हूँ। विगलित है दुर्मति जिसकी, ऐसे ब्रह्मेन्द्र, लान्तव, देखा। उनके पास बहुत समय तक धर्म सुना। बहुत कहने से क्या, वहीं मेरे भी गुरु हैं। स्वर्ग में हम दोनों सुरपति के द्वारा पूछे जाने पर मैंने लीला से वसुन्धरा का उद्धार करनेवाले युगन्धर का चरित कहा। जम्बूद्वीप रमण को मानते हुए, दस-दस सागर (बीस सागर) जिये।
के सुमेरु पर्वत के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती देश है, जो वृक्षों से प्रचुर है। उसमें घत्ता-हे सुन्दरी जननी, (पहला ललितांग देव) कलिमल से रहित करने के लिए आयी और बाईसवें सुसीमा नाम की श्रेष्ठ नगरी है। उसका राजा पुरुष श्रेष्ठ अजितंजय था। उसका मन्त्री अमृतमति स्वच्छन्द देव ललितांग को मैंने गुरु मानकर पूजा है ॥१३॥
मनवाला था। उसकी सत्यभामा नाम की पत्नी थी। उसका पत्र प्रहसित, प्रहसित मखवाला था। उसका मित्र १४
विकसित था, जिसकी आँखें श्वेत थीं। वे दोनों बिना किसी कपट के साथ-साथ सुनते-पढ़ते हुए दिन बिता चंचल और तरुण हरिण के नेत्रों के समान द्युतिवाली, चन्द्रमा के बिम्ब के समान कही जानेवाली और रहे थे। वे दोनों ही विद्वान् थे और घमण्ड से दूर थे । छल-जाति-हेतु और कुविवाद में प्रवीण थे। एक दिन विरह की महाग्नि से चन्दन को सुखा देनेवाली हे प्रिये, तेरी और भी कहानी है। मुझे जन्मान्तर का वृत्तान्त दोनों मित्र राजा के साथ
Jain Education International
For Private & Personal use only
www.jain447-org