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जुगंधरुतीर्थकर
सुहाएप्पियाडव ऊमजयसेणचाककोवारहोतामसतिया तहवितणलामकरवालम विहरकंडस्पतियाळा सुपुक्केवलणापासिहरहो पायलियाममसामंधरहोचोदहरयाणनिहि परिहरविडहरुचरित्नसारुहरविघणापावकोवविद्यावण हावपिएसालदस्तादूपर्छ फणिणरस खश्कयकितगडा अज्ञप्पिणस्मियरक्षपडे गड्याणविसकविद्युलिया उवरिभगवडाहमश वएत्तीसंवहिमणिहाजिपविअहमिंडदेवतिलोचविसुखरवस्दावागिरिनामणमा परिवदसिरितहेवावविदरदिपसुह परजोणिमंगलावश्वसु ।
पतिहातहितस्यणसंचयनियंजपदो रायोपालियसावयवमहा। जोश्यसमिनिपामसंतश् टसुन्दविहतसवसमश्यचा, सादेवाधरुपममिण वनदेवम्प्रतिमारउ नयापुञ्जसमलहि खरखरहि मेरुहविनरडाराशावापुपुणखयूररायराम नणुमेलेविगढ़ वर्णतररुसविधतापविलविमकरुधिरसोणिर सालासर्वतहानिङ्गपंतहोहुरिट पालतहोसत्रमनुचरिडामा प्पाउंजगसंखाहणी केवखुकिउतचणिवणात शिकवणुकवहाउनियतिमाशल निकषा ९८
को देखनेवाली वसुमती देवी का वह पुत्र हुआ। वह जयसेन चक्रवर्ती हुआ। होती हुई पुण्यशक्ति का निवारण कौन कर सकता है? वहाँ भी उसने अपनी पत्ता-वह देव कामदेव के मर्म का निवारण करनेवाला युगन्धर परम जिन उत्पन्न हुआ। समस्त सुरवरों भयंकर तलवार से छह खण्ड धरती का उपभोग किया। फिर केवलज्ञानरूपी श्री को धारण करनेवाले सीमन्धर ने मेरुपर्वत पर आदरणीय उनका अभिषेक किया।॥१९॥ स्वामी के चरणों के मूल में चौदह रत्नों और निधियों को छोड़कर दुर्धर चरित्रभार उठाकर, विद्युत की तरह विद्रवित होकर, सोलह भावनाओं का ध्यान कर, नाग-नर और देवेन्द्र जिसका कीर्तन करते हैं, ऐसे तीर्थकरत्व
२० का अर्जन कर, प्राणों का विसर्जन करते हुए, उड़ती हुई पताकाओं से युक्त मध्यम ग्रैवेयक विमान में अहमेन्द्र वे फिर नर और विद्याधर राज का राजपाट छोड़कर बन के लिए चले गये। अपने मन को रोककर हाथ हुआ। वहाँ पर तीस सागरप्रमाण आयु जीकर, वह अहमेन्द्र च्युत होकर पुष्कर द्वीप के पूर्व विदेह में मेरसिरि । लम्बे किये हुए वह लगातार स्थित रहे। ज्ञानवान् पाप को नष्ट करते हुए, आगमोक्त चरित्र का पालन करते
और व्यूढसिरि नाम का गिरि है, उसके पूर्व विदेह में सुख देनेवाली मनुष्यभूमि मंगलावती नाम की बसुधा हुए उन्हें संसार में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला और तत्त्वों का निरूपण करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उन्होंने है। वहाँ रत्नसंचय नाम के नगर में श्रावक व्रतों का पालन करनेवाले राजा अजितंजय का, सुन्दर स्वप्नावली मुख्य तीर्थ का
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