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सुरसजियलजिन बंदिनजिणुलयवाजियवंदिन मंदिनलिनुहनिंदियनिंदल जम्मवासुदेवहोनवजा नशविणुस्यालेणसकिहनाअकिरिलनिकलगयणसारखउपन्जडयंणुहिएतनाश पागल्यनगढहा सायलहिमहो जिनुपरगरुकहनावलश्खबहामासयहा रखवसमसदी रुजह जिणवैदेशिणबंदियमपिवरमणिवरतेसहरमागणदर अगणहररुजिटाट्सटिव दसदिसिवढयसरियनिमालजय जयणकलेवगावनडठियवर व्यवालिपिमाजसुथियाक्षिणा पिण्याथरपहसालसपहसपश्हनमश्सम्मुद्धादहठादिहरयड्सक्सलिहियाच चित्रचिती उत्तणसस सहविनयंकत कंतेंधुणिनसनसकते कैलेंजयलहिहिविछर्ने पेमक समस्थिकी तें कत्तेचंदणवसंपुर्षे युपियसंजोरपाको रुपरसरीरुमीवहनीवहिउदेशविनपवश्वह इजापिष्टकहिंदीसश्सा सामणपलिणायरवासिणिजाजासासासांत्रसामुछि सामुचिठचंदा चनियाडि छिरविमणुषपुछिराइएक्षाएपस्थिणकर्तिविणमाइप माइगलपमञ्चदर अकमि श्रमियटर्जतकिहररकामायना सवेसंचरिठ पदिउहरि बढ़ावारूपरकियन पर वश्मया खललिययणकाससदियचनबाकसमझगाइसापकप्रविविहामरुलिहियन्सुरा पहसंपत्यसुरहरू पठदिवतरुवरपदणवणु यलबमाणचलकलकालगणु एकललियनदेउहडी
देवों के पूजितों के द्वारा पूज्य की वन्दना की, विश्ववन्दितों के द्वारा वन्दनीय की वन्दना की। पण्डितों के आशंका करते हुए अपना सिर हिलाया। विजयलक्ष्मी के लिए विक्रान्त सुन्दर, स्मृत प्रेम से उत्कण्ठित, सम्पूर्ण द्वारा निन्दितों के द्वारा निन्दित जिनवर की वन्दना की। देव का गर्भवास नहीं होता परन्तु शरीर के बिना (शिव चन्द्रमा के समान सुन्दर (उसने सोचा) कि प्रियसंयोग पुण्य से होता है, रोने से नहीं । रोने से शरीर नष्ट होता का) शास्त्र कैसे युक्तियुक्त है। जो जड़जन बुद्धि से तुच्छ हैं, वे कहते हैं कि वह (शिव) निष्क्रिय निष्कल है, शरीर नष्ट होने पर देव भी प्रवृत्त नहीं होता (काम नहीं करता) ( पता नहीं) वह कहाँ है, कहाँ दिखाई आकाश की तरह निराकार शून्य हैं।
देगी, जो मेरे मनरूपी कमल के भीतर निवास करनेवाली है। "जो वह, वह जो'' यह कहता हुआ वह मूर्च्छित घत्ताहै जिन, आकाश से अधिक भारी, हिम से अधिक ठण्डा और तुमसे महान् गुरु कौन है? वह हो गया। वह सौम्य चन्द्रमा के समान दिखाई दिया, धाय के द्वारा पूछा गया वह विमन बैठ गया। परिजन वैसा ही है, जैसे मुड़ी हुई भुजावाले बन्ध्यापुत्र के ऊपर आकाश-कुसुमों का शेखर ॥२॥
के दौड़ने (द्रवित) होने पर मन कहीं भी नहीं समाता। वह कहती है-हे पुत्री ! तुम्हारा प्रिय बताती हूँ, जो
कुछ उसने कहा है वह तुमसे कैसे छिपा सकती हूँ! जिन को बन्दना कर, उसने मुनिवरों की वन्दना की। शुभ करनेवाले वे मुनि मानो गणधर हों। अपने पत्ता-अच्छी तरह से आच्छादित, बहुत प्रकार से प्रतिलिखित यह पूर्वभवचरित राजपुत्री ने अपने सुन्दर अंगों और नखों की कान्ति से दसों दिशाओं को रंजित करता हुआ, दसों दिशाओं में अपना यश फैलाता हाथ से अपने हृदय के साथ कैसे अंकित कर दिया ! ॥३॥ हुआ, जिसके कुल और हृदय में कलंक नहीं है। व्रतों का पालन करनेवाली जिसकी मति जिननय में स्थित है, ऐसा नशिर वह पट्टशाला में प्रविष्ट हुआ। प्रवेश करते हुए मैंने उसे सामने देखा। अपने सुलिखित चित्त "यह विविध देवोंबाला ईशान स्वर्ग है। यह श्रीमह विमान चित्रित है। यह दिव्य वृक्षोंवाला नन्दनवन
से उसने पट्ट देखा और श्वास लेते हुए उसने सोचा। इष्ट के वियोग से पीड़ित उस उत्तम पुरुष ने जीवन की है। यह बोलता हुआ सुन्दर कोकिलगण है। यह मैं ललितांग देव रहा। Jain Education International
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