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उप्पल रनेट वामन
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मलहिंपण साजेळणंदवणे गाठणंदति कहिमिदी सम्झ जेन लोड विद्या योगवड उहाण पजे काल करे के कष्णुर्वधपणे अपुर जे निडर का खलु तेलियहिणिरुणिमेहना जहिं सोहन वाहिलक्ष्यि लिनि हचिनयरें द सतपु देणार वणिदरें सरसंघाणु जेजु वारणय या उपस्य कती भरायण जर्दिहयक हरिणारी बॅ खजिकिदसहिन उपराणु कुणडेरसरकउपउदिनला नहे असिद्धिपेठ वा रिाउ सरिदहे जपु णऐजे यात वोह गाय सँगुगारुडेाधणे संकरूपणव ध्पविहिसंकरु दोहन गोवाल जिपठ किंकरु अहिं कुंजरू साइंमायंगना मायाठकमाविमायं मठ ॥ घना ज
एकलहंसक सजाकरश्को विष्पविपिनलासर जहिंकलहंस दंग इथ सरु मंदिर पंगण वाविद्दास २००५
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जहाँ शाखाओं का उद्धरण केवल नन्दनवन में है, आनन्द से रहनेवाले वहाँ के लोगों में उद्धार की आवश्यकता नहीं है। जहाँ लोग बिनय से नम्रमुख रहते हैं, वहाँ केवल ऊँट ही अपना मुख ऊँचा रखनेवाला है। जहाँ हाथ में कंगन और पैरों में नुपूर बाँधा जाता है, वहाँ और कोई दुःख से व्याकुल नहीं है। जहाँ तेली के घर में बिना स्नेह के खल देखे जाते हैं, और सब लोग सुजन सस्नेही हैं। जहाँ व्याधि चित्रकारों द्वारा दीवालों पर लिखी जाती है, नरसमूह के द्वारा शरीर में कोई बीमारी नहीं देखी जाती। जहाँ व्याकरण में ही सर-सन्धान (स्वर सन्धि) देखा जाता है शत्रु के लिए भयंकर राजयुद्ध में सरसन्धान नहीं देखा जाता। जहाँ हरि (अश्व) हयवर है, वहाँ नारीगण हतवर नहीं हैं। जहाँ बाँस छिद्रसहित है, वहाँ के लोग छिद्र सहित नहीं हैं। जहाँ
कुनट में रस का क्षय है, बाजार मार्गों में रसक्षय नहीं है। जहाँ तलवारों का ही पानी अपेय है, वहाँ के सरोवरों और नदियों का पानी अपेय नहीं है। जहाँ अंजन नेत्रों में है, वहाँ के तपस्वियों में अंजन (पाप) नहीं है। जहाँ णायय (नागभंग-न्यायभंग) गारुड़ मन्त्र में हैं, धन के उपार्जन में जहाँ न्याय का भंग नहीं है। जहाँ संकर शिव है, वहाँ वर्णव्यवस्था में संकर नहीं है। जहाँ ग्वाल दोहक (दूध दुहनेवाले) हैं, वहाँ के अनुचर द्रोही नहीं हैं। जहाँ हाथी को ही मातंग कहा जाता है, वहाँ लोग माया को प्राप्त नहीं होते।
धत्ता- लोग सज्जन के साथ कलह नहीं करते, कोई भी अप्रिय नहीं बोलता जहाँ प्रांगण प्रांगण और बापिकाओं में कलहंसों की गति का प्रसार देखा जाता है ॥ ३ ॥
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