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ललितांगदेवुसे वोधिगयउ नारा।। यणसंस्कारणविधेः
संपत्तीत सुहासिहर गनपवलणे
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हे पुत्र ! तुम हाहाकार क्यों कर रहे हो, अपने को धीरज देकर चलो धीर के आधार को लेकर चलनेवाले वीर विशाल विश्व को गोपद के समान समझते हैं। भाई-भाई, क्या पुकारते हो? याद करो मैं तुम्हारी माँ हूँ। तुम्हारे घर में रहकर तप किया, उसी से देवभव में जन्मी यह कहकर वह देव अपने घर चला गया, मैंने चक्रवर्ती मुख देखा। सचमुच मैंने उसे निश्चेतन जाना। चिता बनाकर आग ले आया। शीघ्र ही वासुदेव
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वलिसप्रदीक्षा
अयुत स्वये गमनललितागदेव सजाकरणं ॥
का संस्कार किया और पुत्र को अपने राज्य में स्थापित कर दिया। तथा व्रत और संयम का भार उठाने में धुरन्धर युगन्धर मुनि के पास जाकर दीक्षा ले ली। पाँच इन्द्रियरूपी गजों को पीड़ित किया और सिंहविक्रीड़ित तप किया। फिर सर्वतोभद्र तप किया और मिथ्यात्व की जड़ता समाप्त कर दी। अनशन के विधान में जो कुछ कहा गया है, चार प्रकार की आराधना को मैंने सम्पन्न किया। मैं अर्हत् को बार-बार बाद कर मर गया
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