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श्री वर्म्मवित्ती सा वलिस नाराय णाराजांकरेति
गरजापण सुधम्भूरिसरणु किनघोरुवी रुजिगतवच रणुभिताउनुयात्रिजरामरण पत्र निकलुनिम्ालुक र छुडुपरिसाविनकं चप्पवित्ष्णु रायणविमुक्कदोघ रुजिवाणु निझाश्यासादो थंडिलविळख राइयो गिरिकंदरमदिक किंकर डक्लिपरिणान तंधार इस लेरविमणो हरक्षिण लक्षण जियरुमादति गणिययमाणे विष्मन जणणिण्डरुचरित्र परकालिउड
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मांतरडुनि सम्पासणेायद्विपचगुरु सादिविल लिगसुरु घता सिरिखंजेविलोयत्तिसा तिसिन् मन उविदासपुराण नयाँ उपारयमूलाविवरे। कार्लेको विली पाडवई लहि सरसई या सहवासुव विहि णादलिविद्यलिन डस्टिन कप्परक सहादिवगं दसणयन्निनं ॥ सवपेच विहडाकालिन सोयदे
पिता सुधर्म मुनि की शरण में चले गये और उन्होंने घोर वीर तपश्चरण किया। उत्पत्ति-जरा और मरण का उन्होंने नाश कर दिया, और सिद्धावस्था को प्राप्त करानेवाला केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। मेरी माता (मनोहरा) ने शीघ्र ही स्वर्ण को तृण के समान समझ लिया। क्योंकि जो राग से मुक्त है उसके लिए घर ही बन है। तथा नववधू के आलिंगन का स्वाद करनेवाले रागी के लिए थण्डिल ( जन्तुरहित भूमि ) भी स्तनस्थल हैं। गिरि की गुफा या घर क्या करता है? यदि वह पाप परिणाम नहीं करे तो यह विचार कर मनोहरा जिनवर का ध्यान करती हुई अपने भवन में रहने लगी। मानो उसने कठोर तप स्वीकार कर लिया और जन्मान्तर के पापों को धो डाला। वह संन्यासिनी पंचगुरु का ध्यान कर स्वर्ग में ललितांग देव हुई।
नारायणमरण देषिकरिवलिल डुसोककर !
घत्ता–लक्ष्मी का भोग करता हुआ और भोग की तृष्णा की व्याकुलता से मरकर विभीषण राजा नरक के महा विलय में उत्पन्न हुआ, समय के साथ किसका अन्त नहीं होता ! ॥ ६ ॥
लक्ष्मी और सरस्वती के सहवास के समान विधाता ने उसे चूर-चूर करके फेंक दिया। विनाश के हाथी के दाँतों से ठेला गया वह सुखाधिप उखड़े हुए कल्पवृक्ष के समान था। उसके शव को देखकर मैं दुख से व्याकुल हो गया। शोक की ज्वाला से देहरूपी वृक्ष जल गया।
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